बुधवार, 20 मई 2020

= *साँच निर्भय का अंग ११८(१७/२०)* =

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*शब्द समाना जो रहै, गुरु बाइक बीधा ।*
*उनही लागा एक सौं, सोई जन सीधा ॥टेक॥**
*ऐसी लागी मर्म की, तन मन सब भूला ।*
*जीवत-मृतक ह्वै रहै, गह आत्म मूला ॥१॥*
*चेतन चितहि न बीसरे, महारस मीठा ।*
*शब्द निरंजन गह रह्या, उन साहिब दीठा ॥२॥*
*एक शब्द जन ऊधरे, सुनि सहजैं जागे ।*
*अंतर राते एक सौं, सर सन्मुख लागे ॥३॥*
*शब्द समाना सन्मुख रहै, पर आतम आगे ।*
*दादू सीझै देखतां, अविनाशी लागे ॥४॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*साँच निर्भय का अंग ११८*
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दीपक दोष जु तिमर१ तल२, हीरे के सो नांहि ।
रज्जब सत्य असत्य के, उभय अंग३ ये माँहिं ॥१७॥
दीपक के नीचे२ अंधेरा१ रहता है, यह उसमें दोष है, हीरे में यह नहीं है, उसका प्रकाश सर्वत्र सम रहता है, वैसे ही सत्य असत्य में भी ये दो लक्षण३ हैं अर्थात असत्य में दोष है सत्य में नहीं है ।
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सांच शब्द खांडे घटा१, जाके द्वै दिशि धार ।
रज्जब वक्ता के बहै, श्रोता होयसु मार ॥१८॥
सत्य शब्द दोनों ओर धार वाले खांडे के समान१ है, जैसे वह खांडा दोनों ओर बहता है वैसे ही सत्यशब्द वक्ता और श्रोता दोनों की ओर ही चलता है अर्थात दोनों को ही लाभप्रद है ।
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साधू वक्ता वंशगति, सत्थ शब्द बिच आगि ।
जन रज्जब श्रोता वनी, कर्म जले तिंहि लागि ॥१९॥
सच्चा उपदेशक संत बाँस के वृक्ष के समान है और श्रोता वन के समान है, जैसे बाँस से अग्नि निकल कर वन में लगता है और वन को जला देता है, वैसे ही संत से सत्य शब्द निकलते हैं, उनसे श्रोता के कर्म जल जाते हैं ।
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रज्जब दारु१ दर्शणी२ पत्थर पंडित, साधु सार३ हरि हंस४ ।
चतुर५ ठौर वह्नी६ वचन, किहिं विधि बरतै वंश ॥२०॥
काष्ठ१, पत्थर, लोहा३ और सूर्य४ इन चारों५ में अग्नि६ है किन्तु बाँस अपनी अग्नि को किस प्रकार वर्तता है ? अर्थात बन को भस्म कर डालता है । वैसे ही भेषधारी२, पंडित, साधक-साधु और हरि इन चारों में से ही वचन निकलते हैं किन्तु ज्ञानी वक्ता संत अपने वचनों को किस प्रकार वर्तता है ? अर्थात श्रोताओं के कर्मों को नष्ट करता है ।
(क्रमशः)

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