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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग हुसेनी बँगाल १७ (गायन समय पहर दिन चढ़े चन्द्रोदय ग्रँथ के मतानुसार)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२८९ - (फारसी) अनन्यता । त्रिताल
है दाना१ है दाना२, दिलदार३ मेरे कान्हा ।
तूँ हीं मेरे जान४ जिगर५, यार मेरे खाना६ ॥टेक॥
तूँ हीं मेरे मादर७ पिदर८, आलम९ बेगाना१० ।
साहिब शिरताज मेरे, तूँ हीं सुताना ॥१॥
दोस्त दिल तूँ हीं मेरे, किसका खिल११ खाना१२ ।
नूर१३ चश्म१४ ज्यंदद१५ मेरे, तूँ हीं रहमाना१६ ॥२॥
एकै असनाव१७ मेरे, तूँ हीं हम जाना ।
जानिबा१८ अजीज१९ मेरे, खूब खजाना ॥३॥
नेक२० नबर महर मीराँ२१, बँदा मैं तेरा ।
दादू दरबार तेरे, खूब साहिब मेरा ॥४॥
अनन्यता दिखा रहे हैं, हे महान्१ और सर्वज्ञ२ मेरे प्यारे३ कृष्ण !
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आप ही मेरे जीवन४, कलेजा५, सहायक, और निवास६ स्थान हैं । आप ही सँसार९ में मेरे माता७ पिता८ और पराये१० जन भी हैं,
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आप ही मेरे स्वामी, शिरोमणि बादशाह, सुहृद हैं और यह सब११ शरीर रूप घर१२ भी किसका है, आप ही का है । हे दयालु१६ ईश्वर ! आपका स्वरूप१३ ही मेरे नेत्र१४ तथा जीवन१५ का लक्ष्य है ।
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हमने जान लिया है - एक मात्र आप ही सँसार वो मेरे(असना१७=आव१७) बीच१७ में शोभारूप१७ हैं । आप ही मेरे पक्ष१८ पर रहने वाले सम्बन्धी१९ और श्रेष्ठ धनराशि हैं ।
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हे मेरे श्रेष्ठ स्वामिन् ! मैं आपके दरबार में आया हूं, आपका दास हूं । हे मेरे सरदार२१ ! मुझ पर उत्तम२० दया युक्त दृष्टि करिये ।
(क्रमशः)
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