मंगलवार, 26 मई 2020

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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द* 
*राग टोडी(तोडी) १६ (गायन समय दिन ६ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
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२८५ - समता । वसँत ताल
एकहीं एकैं भया अनँद, एकहीं एकैं भागे द्वन्द ॥टेक॥
एकहीं एकैं एक समान, एकहीं एकैं पद निर्वान ॥१॥
एकहीं एकैं त्रिभुवन सार, एकहीं एकैं अगम अपार ॥२॥
एकहीं एकैं निर्भय होइ, एकहीं एकैं काल न कोइ ॥३॥
एकहीं एकैं घट परकाश, एकहीं एकैं निरंजन वास ॥४॥
एकहीं एकैं आपहि आप, एकहीं एकैं माइ न बाप ॥५॥
एकहीं एकैं सहज स्वरूप, एकहीं एकैं भये अनूप ॥६॥
एकहीं एकैं अनत न जाइ, एकहीं एकैं रह्या समाइ ॥७॥
एकहीं एकैं भये लै लीन, एकहीं एकैं दादू दीन ॥८॥
समता की विशेषता दिखा रहे हैं, एकता के द्वारा एक आत्मस्वरूप ब्रह्म में स्थित हुये तब आनन्द प्राप्त हुआ । हृदय से द्वन्द्व भाग गये, 
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सब एक समान भासने लगे, निर्वाण पद प्राप्त हुआ । त्रिभुवन के सार, अगम, अपार प्रभु से परिचय हुआ । 
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निर्भय हो गये, काल का कोई भय नहीं रहा । अन्त:करण में ज्ञान प्रकाश हुआ, निरंजन राम में निवास हुआ । 
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कोई माता - पितादि कारण न भास कर आप ही स्वरूप स्थिति रह गई । अनुपम होकर सहज स्वरूप में आ गये । 
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अन्य स्थान न जाकर अपने स्वरूप में ही समा गये । इस प्रकार हम दीनता द्वारा साम्य भाव में आकर अद्वैत ब्रह्म में वृत्ति लगाते हुये उसी में लीन हो गये हैं ।
(क्रमशः)

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