रविवार, 10 मई 2020

माया का अंग १२९/१३३

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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १२. माया का अंग)
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*दादू जे विष जारे खाइ कर, जनि मुख में मेलै ।*
*आदि अन्त परलै गये, जे विष सौं खेलै ॥१२९॥*
उर्ध्वरेता योगी मुद्रा द्वारा वीर्य को आकर्षणशक्ति से ऊपर चढ़ा लेते हैं अर्थात् उसको पचा जाते हैं । वे भी यदि विषय भोग में प्रवृत्त हो जांय तो योग मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं । लिखा है कि-
भोग तो आकाश के मध्य चमकने वाली बिजली की तरह क्षणभंगुर हैं आयु वायु के द्वारा इधर घूमने वाले बादलों के मध्य जल बिन्दु की तरह चंचल है । यौवन की लालसा भी नष्ट होने वाली है । ऐसा विचार कर बुद्धिमान् मनुष्यों को चाहिये कि योग की साधना में अपने मन को लगावें ।
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*जिन विष खाया ते मुये, क्या मेरा तेरा ।*
*आग पराई आपणी, सब करै निबेरा ॥१३०॥*
विष अपना हो या किसी अन्य का हो, इससे विष में कोई अन्तर नहीं आता विष तो विष ही है । जैसे अग्नि अपने घर की हो या पराये घर की वह तो तृण समूह को अवश्य जलायेगी । इसमें कोई संशय नहीं है । जैसे विषपान करने वाले को विष तो अवश्य नष्ट करेगा । ऐसे ही स्त्री चाहे अपनी हो या पराई वह तो भोगने वाले को अवश्य नष्ट करेगी । अतः साधक उसका त्याग ही रखे । 
लिखा है कि- स्त्री अग्नि के समान है और मनुष्य घी से भरे घड़े के समान है । अतः जैसे अग्नि के संसर्ग से घृत पिघल जाता है वैसे ही स्त्री के संग से मनुष्य का मन चंचल हो जाता है और वासना जागृत हो जाती है । अतः अपनी बेटी ही क्यों न हो उससे भी एकान्त में नहीं मिलना चाहिये । किन्तु आवश्यकता के अनुसार ही व्यवहार करें ।
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*दादू कहै, जनि विष पीवै बावरे, दिन दिन बाढै रोग ।*
*देखत ही मर जाइगा, तजि विषिया रस भोग ॥१३१॥*
हे साधक ! ये विषय महाविष के तुल्य है और भोगों को तो तू महारोग ही समझ । तूं नहीं जानता कि ये विषयदर्शनमात्र से ही चित्त को चुरा लेते हैं और मन को मार देते हैं । अतः मुक्ति चाहता है तो इन विषयरसों को विष की तरह त्याग दे । 
वासिष्ठ में लिखा है कि- स्त्रीरूपी मेरी माया का बल तो देखो जो भूभ्रंगमात्र से बड़े-बड़े दिग्विजयी वीरों को अपने चरणों से कुचल देती है । दर्शनमात्र से चित्त को हर लेती है तथा संभोग से वीर्य को हर लेती है, अतः यह स्त्री प्रत्यक्ष राक्षसी ही है । 
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*अपना पराया खाइ विष, देखत ही मर जाय ।*
*दादू को जीवै नहीं, इहि भोरे जनि खाय ॥१३२॥*
*॥ माया ॥*
*ब्रह्म सरीखा होइ कर, माया सौं खेलै ।*
*दादू दिन दिन देखतां, अपने गुण मेलै ॥१३३॥*
ब्रह्मनिष्ठ साधक भी यदि माया का संग करे तो वह माया धीरे-धीरे अपने सात्विक राजस तामस गुणों को तथा कामक्रोधादि विकारों को पैदा करके परमार्थ मार्ग से साधक को गिर देती है ।
(क्रमशः)

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