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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*४. विरह कौ अंग ~ १९३/१९६*
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पोस *सरीयत* प्रीति रस, गोस *तरीकत* गांन ।
कहि जगजीवन असत *हकीकत*, मगज *मारफत* जांन ॥१९३॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि, हे जीव परमात्मा के नियम को प्रेम से पाने का यत्न कर और परमात्मा का निवास कहाँ है विचार करें ।
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इलम हि लम अंदक गुप्त, सुखन राज विसियार ।
कहि जगजीवन पाक दिल, आसिक अल्लह लार ॥१९४॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि स्मरण भी प्रभु से मिलने की कला या मार्ग है । इसे अतंसः में ही रखें अतंर जाप से ही सुख है अतः इसे गिनती में नहीं भूलने में रखो जिससे अहम् का नाश होगा। जब दिल पवित्र होगा तो अल्लाह स्वयं तुम्हारे आशिक बन उपस्थित हो जायेंगे।
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कहि जगजीवन अवलिया, इश्क अल्लह आरांम ।
हरदम ता अंत हजूरी, हरदम रद दिल नांमं ॥१९५॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि ईश्वर या अल्लाह ही हमारा पीर है औलिया है और उससे लगन में ही आराम है और प्रार्थना यह है कि हरदम उनकी ही सेवा हो और दिल नाम में रत हो।
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कहि जगजीवन जे सुखन, तेही तनि तां सीर ।
रांम रहीम करीम कहै, सोई जगत गुरु पीर ॥१९६॥
संत जगजीवन जी कहते हैं कि संसार में वही सुखी है जो प्रभु के साथ है, जो स्मरण करते हैं वे ही संसार के गुरु व पीर यानि मार्गदर्शक हैं।
(क्रमशः)
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