मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

दुर्लभ दरशन साधु का १/१५४


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साभार ~ *"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*गुरुदेव का अंग १/१५४*
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*दुर्लभ दरशन साधु का, दुर्लभ गुरु उपदेश ।*
*दुर्लभ करबा कठिन है, दुर्लभ परस अलेख ॥१५४॥*
दृष्टांत - 
योगेश्वर गये जनक के, मिल्यो बाथ भर सोइ ।
नाथ अल्प जीवन सु यह, बार बार नहिं होइ ॥४०॥
दुर्लभ दर्शन साधु का, इसी अंश पर दृष्टांत है । एक समय ऋषभदेव के पुत्र नौ योगेश्वर राजा जनक के यहां पधारे थे । उनका आगमन सुनकर राजा अति हर्षित हुआ और मंत्री आदि के साथ द्वार पर आया । दूर से ही प्रणाम करके नौवें से एक साथ मिलने के लिये नौवों को अपनी बाथ में ले लिया । 
फिर राजसभा में लाकर दिव्य ग्रासनों पर विराजमान कराकर पूजा की और कहा - यदि आप लोग किसी कार्य से पधारे हों तो कहिये वह अवश्य ही किया जायेगा और कृपा करके दर्शन देने ही पधारे हैं तो हम लोग आप तीर्थरूप महात्माओं के दर्शन करके कृतार्थ हो गये हैं । 
तब योगेश्वरों ने कहा - हम तो आपको ज्ञानी समझते थे किन्तु आपका हम नौवों को एक सथ बाथ में लेना तो मूर्खों का सा व्यवहार है । ऐसा आपने क्यों किया यह बताइये... तब जनक ने कहा - 
दुर्लभो मानुषो देहो, देहिनां क्षणभंगुरः ।
तत्रापि दुर्लभ मन्ये, वैकुण्ठ प्रिय दर्शनम् ॥
प्रथम तो संपूर्ण शरीरों में मनुष्य देह ही दुर्लभ है और क्षण भंगुर भी है । पता नहीं अगले क्षण रहे या नहीं । इससे भी अति दुर्लभ भगवान् के प्यारे आप महात्माओं का दर्शन है । अतः मैंने सोचा - एक - एक का चरण स्पर्श करके मिलूं और बीच में ही शरीर छूट जाय तो अन्य शेष से बिना मिले ही रह जाऊंगा । इससे एक साथ ही आप महानुभावों से मिला था । राजा का विचार सुनकर योगेश्वरों ने कहा - तुम्हारा विचार उत्तम है ।
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अविचल मंत्र की प्रसंग कथा - एक दिन जग्गा ने सांभार नगर में दादूजी से प्रार्थना की - भगवन् ! मेरी इच्छा है, आपकी तपोभूमि करड़ाला के तथा मोरड़ा के वट - वृक्ष का दर्शन कर आऊं । उक्त यात्रा के लिये आप मुझे आज्ञा दें । जग्गाजी की विशेष रुचि देखकर दादूजी ने आज्ञा दे दी । जग्गाजी करड़ाला की यात्रा करके लौटे तो सलेमाबाद के पास आ पहुँचे । किसी ले पू़छा - इस ग्राम का क्या नाम है ? उसने कहा - सलेमाबाद । 
यह सुनकर जग्गाजी को परशुरामजी के दर्शन की इच्छा हुई । वे गये किन्तु द्वारपालों ने नहीं जाने दिया । जग्गाजी समझ गये कि मुझे कंगाल समझकर रोका है । फिर वे ग्राम में जाकर एक वैश्य से बोले - मैं दादूजी का शिष्य हूं परशुरामजी के दर्शन कर आऊं इतनी देर के लिये तुम मुझे अपने कपड़े दे दो । उसने दे दिये । 
अब जग्गाजी सेठ बनकर चले और मार्ग में बहुत से ऊंट के मेंगने लगभग पांच सेर अपने वस्त्र में बांधकर हाथ में लटका लिये । अब की बार द्वार पर स्थित लोगों ने देखा तो समझा यह कोई बड़ा सेठ है और प्रसाद भी लाया है । हमें भी प्रसाद मिलेगा तथा महाराज को अच्छी भेंट चढ़ायेगा । तत्काल दो तीन व्यक्ति उठकर सामने आये और बोले - चलिये महाराज के पास आपको ले चलते हैं ।
परशुरामजी के पास जाकर जग्गाजी ने मेंगनों को एक और रखकर पहले मेंगनों की गठड़ी को दंडवत किया । फिर परशुरामजी को दंडवत किया और समाने बैठ गये । परशुरामजी ने पू़छा - आप कौन हैं ? कहां से आये है ? और मेंगनों की गठड़ी को प्रणाम करने का क्या रहस्य है ? मेरे पास किस लिये आये हैं ? जग्गाजी - मैं दादूजी का शिष्य हूँ, जग्गा मेरा नाम है । आपके दर्शन करने आया हूँ । 
फिर उक्त कथा सुनाकर कहा - मेंगनों की गठड़ी के प्रताप से ही आपका दर्शन हुआ है । अतः पहले मेंगनों को प्रणाम किया है । परशुरामजी समझ गये । फिर परशुरामजी ने पू़छा - दादूजी ने आपको क्या मंत्र बताया है ? जग्गाजी - दादूजी सत्यराम बोलते है और जपने के लिये राम मन्त्र बताते हैं । 
परशुरामजी - राम तो शिरोमणि है ही किन्तु दादूजी का सम्प्रदाय चलेगा । अतः सम्प्रदाय का मंत्र तो भिन्न होना ही चाहिये । जग्गाजी - तो मैं यह आपकी बात महाराज को कहूँगा । फिर सांभर आकर जग्गाजी ने उक्त बात कही तब दादूजी ने अविचल आदि २४ मंत्र कहकर कहा । गुरुमंत्र इन चौबीस को मानना । उक्त प्रकार अविचल मंत्र का आविर्भाव हुआ था । सलेमाबाद में हुई जग्गाजी की अन्य घटनायें दादूपंथ परिचय के पर्व ३ अध्याय ५ के पृष्ठ ४३८ से ४४२ तक देखें ।

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