गुरुवार, 18 जून 2020

साँच का अंग १३४/१३७


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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*भ्रम विध्वंसण*
*दादू पैंडे पाप के, कदे न दीजे पांव ।*
*जिहिं पैंडे मेरा पीव मिले, तिहिं पैंडे का चाव ॥१३४॥*
पापमय जितने भी कर्म हैं उनको त्याग देना चाहिये । पाप कर्म में एक पांव भी मत रखो, जो पवित्र कर्म है, उन्हीं का सेवन करना चाहिये, जिससे अन्तःकरण पवित्र होकर ब्रह्म की प्राप्ति हो जाय । 
लिखा है कि- “जो हमारे पवित्र कर्म हैं उन्हीं का तुम को सेवन करना चाहिये और हमारे दुष्कृत हैं उनको कभी नहीं करना चाहिये ।”
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*दादू सुकृत मारग चालतां, बुरा न कबहूँ होइ ।*
*अमृत खातां प्राणिया, मुवा न सुनिया कोइ ॥१३५॥*
जैसे अमृत का भोजन करने वाला कभी मरता नहीं, उसी प्रकार सुकृत मार्ग पर चलने वले का कभी अकल्याण नहीं होता । अतः कल्याण चाहने वाले को सुकृत मार्ग पर ही चलना चाहिये । यह सुकृत मार्ग क्या है और उस पर कैसे चला जाता है? 
इस प्रश्न के विषय में महाभारत में लिखा है कि- “ब्रह्मचर्य गार्हस्थ वानप्रस्थ संन्यास आश्रम में स्थित ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण जिस मार्ग पर चलने हैं उन ब्राह्मणों का मार्ग एक ही है । क्योंकि वे नाना चिन्हों को धारण करके भी एक ब्रह्मबुद्धि का ही आश्रय लेते हैं । भिन्न-भिन्न आश्रमों में रहते हुए भी जिनकी बुद्धि शान्ति के साधन में लगी हुई है । अन्त में एक मात्र सत्स्वरूप ब्रह्म को उसी प्रकार प्राप्त है, जैसे सब नदियां समुद्र को प्राप्त होती है । यह मार्ग बुद्धिगम्य है । शरीर के द्वारा नहीं । सभी कर्म आदि अन्त वाले हैं तथा शरीर कर्म का हेतु है । इसलिये हे देवि ! तुम्हारे परलोक के लिये तनिक भी भय नहीं है । आप परमात्वभाव की भावना में रत हो । अतः अन्त में मेरे स्वरूप को प्राप्त हो जावोगी अतः ब्रह्म बुद्धि के द्वारा ही उस मार्ग को प्राप्त कर सकते हो । अथवा वैदिक कर्म प्रवृत्ति निवृत्ति भेद से दो प्रकार के हैं । जो मन की वृत्तियों को विषय की और ले जाते हैं उनको प्रवृत्ति कर्म कहते हैं, मन की जो वृत्तियों को विषय से हटाकर शान्त एवं आत्म साक्षात्कार के योग्य बना देता है उसे निवृत्तिमार्ग कहते हैं । प्रवृत्तिपरक कर्म से बार बार जन्मता रहता है । निवृत्ति कर्म से भक्ति मार्ग या ज्ञान मार्ग द्वारा परमात्मा की प्राप्ति होती है । अतः परमात्मा को प्राप्त करने वाला मार्ग ही सुकृत मार्ग है । 
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*॥ भ्रम विधौंसण ॥*
*कुछ नाहीं का नाम क्या, जे धरिये सो झूठ ।*
*सुर नर मुनिजन बंधिया, लोका आवट कूट ॥१३६॥*
*कुछ नाहीं का नाम धर, भरम्या सब संसार ।*
*साच झूठ समझै नहीं, ना कुछ किया विचार ॥१३७॥*
जो ब्रह्म स्वयं रूप गुण क्रियादि से रहित है उसके जो नाम रूप गुण क्रिया आदि दीखते हैं, वे सब मायाकृत ही हैं और मिथ्या हैं । फिर भी मायाकृत नामरूपों में देवता मानव आदि सभी बद्धाग्रह हो रहे हैं और परमात्मा को भूलकर संसार कुहर में पड़ रहे हैं । कभी भी विचार नहीं करते । अतः सभी को विचार दृष्टि से जगत् को मिथ्या समझकर ब्रह्म का ही ध्यान करना चाहिये । 
श्रुति में कहा है कि- जितना भी नामधेय विकार है वह केवल वाणी का आराम्भण मात्र हैं । अर्थात् वाणी से ही प्रतीत होता है, वास्तविक नहीं है । जैसे मिट्टी से बनने वाले घट आदि केवल नाम से ही प्रतीत हो रहे हैं, वस्तुतः तो वे सब मृन्मय ही हैं । क्योंकि उनके आदि अन्त में मिट्टी ही शेष रहती है । ऐसा जानकर ब्रह्म का ही ध्यान करना चाहिये ।
विवेकचूडामणि में- “जैसे सेना के मध्य स्थित राजा सेना से अलग ही रहता है, वैसे अपने को विशुद्ध ज्ञानस्वरूप समझकर अपनी आत्मा में स्थित होकर सारे जगत् को ब्रह्म में लीन कर दो । क्योंकि ब्रह्म सबका अधिष्ठान है, अध्यस्त अधिष्ठान से भिन्न नहीं होता ।”
(क्रमशः)

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