बुधवार, 3 जून 2020

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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द* 
*राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२९३ - राज मृगाँक ताल
कब देखूँ नैनहुँ रेख१ रती, 
प्राण मिलन को भई मती ।
हरि सों खेलूँ हरी गती२, 
कब मिलि हैं मोहि प्राणपती ॥टेक॥
बल कीती३ क्यों देखूँगी रे, 
मुझ माँहीं अति बात अनेरी४ ।
सुन साहिब इक विनती मेरी, 
जन्म जन्म हूं दासी तेरी ॥१॥
कहै दादू सो सुनसी साँई, 
हौं अबला बल मुझ में नाँहीं ।
करम५ करी घर मेरे आई, 
तो शोभा पिव तेरे ताँई ॥२॥
मेरा जीवात्मा प्रभु से मिले, इसके लिये मेरी बुद्धि आतुर हो रही है । मैं उन प्रभु का कभी किंचित् मात्र भी स्वरूप१ देख पाऊंगी तो मुझे शाँति मिलेगी । वे प्राणपति मुझे कब मिलेंगे ? 
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और मैं उन हरि का ही रूप२ धारण करके हरि के साथ कब खेल सकूंगी ? अरे ! मैं अपने बल करके३(द्वारा) तो उनको कैसे देख सकूंगी ? कारण, मेरे में तो ऐसी बहुत - सी दोष४ रूप बातें हैं, जो उनसे दूर करती हैं । किन्तु हे स्वामिन् ! मेरी एक विनय सुनिये, मैं जन्म २ से आपकी दासी रही हूं.. 
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और विनय कर रही हूं, आप मेरे प्रभु होने से वह विनय अवश्य सुनेंगे, ऐसी आशा है । हे प्रियतम ! मैं अबला हूं, मुझ में कुछ भी बल नहीं है, अत: आप कृपा५ करके मेरे हृदय घर में पधारेंगे, तब ही आपके लिये शोभा की बात रहेगी ।
(क्रमशः)

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