बुधवार, 3 जून 2020

= *कृपण का अंग १२०(२९/३२)* =

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🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*ज्यों जल मैंणी माछली, तैसा यहु संसार ।*
*माया माते जीव सब, दादू मरत न बार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*कृपण का अंग १२०*
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कोड़ि१ जोड़ि२ स्वपने पङ्या, जागि देखि कछु नाँहिं ।
तैसे रज्जब सूम गति३, यूं समझो मन माँहिं ॥२९॥
स्वप्न में पड़े पड़े ने कोटि१ रुपये जोड़२ लिये किन्तु जागकर देखे कुछ भी नहीं मिलता वैसे ही कृपण की चेष्टा३ है मन में यही समझना चाहिये ।
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गज मोती रु भुजंग मणि, तीजे सूम सु आथि१ ।
रज्जब मुर२ मारे बिना, माया चढै न हाथि ॥३०॥
हाथी का मोती, सर्प की मणि और तीसरे कृपण की सम्पत्ती१, उक्त तीनों२ को मारे बिना इनकी मोती, मणि सम्पत्ती, रूप माया हाथ नहीं लगती ।
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दुमई के दुम१ सारिखी, कृपण की कौपीन ।
रज्जब रिधि२ चीर्यों कढै, पुण्य पाणि३ सो हीन ॥३१॥
जैसे दुमई मेढा की पूंछ१ उसके कौपीन के समान होती है, वैसे ही धन२ के कृपण रूप कौपीन होती है, दुमई की दुम काटने से ही उसके नीचे का स्थान निकलता है, वैसे ही कृपण को मारने से ही उसका धन निकलता है । पुण्य करने के हाथों३ से तो वह रहित ही रहता है ।
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सूम सु चेरा लक्ष्मि का, हस्त न सकई लाय ।
पुण्य पुरुष श्री१ मौर२ है, खर्चै सदा सु खाय ॥३२॥
कृपण लक्ष्मी का सेवक है, वह लक्ष्मी के हाथ नहीं लगा सकता । पुण्यात्मा पुरुष लक्ष्मी१ का स्वामी२ है, वह पुण्य कर्मो में खर्चता है और खाता है ।
(क्रमशः)

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