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श्रीदादूवाणी भावार्थदीपिका भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य ।
साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*हस्तलिखित वाणीजी* चित्र सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(श्री दादूवाणी ~ १३. साँच का अंग)
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*दादू दोन्यूँ भरम हैं, हिन्दू तुरक गंवार ।*
*जे दुहुवाँ थैं रहित है, सो गहि तत्त्व विचार ॥१२१॥*
हिन्दू और मुसलमान का भेद भी अज्ञान द्वारा बुद्धि से कल्पित होने से मिथ्या ही है । शरीर का भी दोनों में भेद नहीं हो सकता क्योंकि दोनों के शरीर पञ्चभूतों से बने हैं । आत्मा तो सबका समान ही होता है । अतः केवल अज्ञान के कारण बुद्धि द्वारा कल्पित भेद को त्याग कर विचार दृष्टि से सबमें धर्मातीत आत्मा को ही देखो । लिखा है कि आत्मा सबका एक ही है अतः किसी को भी क्लेश मत दो । वेदान्तसंदर्भ में लिखा है कि- “मैं बालक युवा वृद्ध नहीं हूं । न वर्णाश्रम धर्म वाला ब्रह्मचारी व गृहस्थ हूं, न वानप्रस्थी और न संन्यासी हूं किन्तु सर्वधर्मातीत जगत् के जन्म और नाश का कारण ब्रह्मरूप आत्मा हूं ।
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*अपना अपना कर लिया, भंजन माँही बाहि ।*
*दादू एकै कूप जल, मन का भ्रम उठाहि ॥१२२॥*
*दादू पानी के बहु नाम धर, नाना विधि की जात ।*
*बोलणहारा कौन है, कहो धौं कहाँ समात ॥१२३॥*
अपने अपने घट आदि पात्रों में जल के भरने पर केवल घट आदि के भेद के कारण जल का भेद नहीं हो सकता क्योंकि वह जल एक ही कूप से लिया गया है । परन्तु फिर भी अज्ञानी यह जल ब्राह्मण का है और यह शूद्र का, ऐसा कहते हुए लज्जित नहीं होते । न शरीर भेद से आत्मा का भेद होता । क्योंकि सब प्राणियों में वर्ण, आश्रम, जाति आदि धर्मों से रहित एक ही आत्मा है । अतः जिसकी सत्ता से सभी जीव बोलते सुनते हैं वह आत्मा एक ही है ऐसा जानकर विद्वानों को भेदभाव मिटा देना चाहिये ।
सर्ववेदान्त संग्रहसार में लिखा है कि- “रस्सी के स्वरूप को न जानने के कारण अज्ञानी जीव यह सर्प है ऐसा कह कर चिल्लाता है, भयभीत होकर कांपता है । किन्तु उसका यह भयभीत होना सब बेकार ही है, क्योंकि वहां सर्प है ही नहीं, ऐसे ही आत्मा में जन्म-मरण व्याधिजरा आदि धर्म है ही नहीं, फिर भी अज्ञानी जन्म, मरण, व्याधि जरा से अपने को दुःखी मानता है । अतः आत्मा का सम्यग् विचार करके उन भ्रमजन्य दुःखों को त्याग देना चाहिये ।
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*जब पूरण ब्रह्म विचारिये, तब सकल आत्मा एक ।*
*काया के गुण देखिये, तो नाना वरण अनेक ॥१२४॥*
जब पूर्ण ब्रह्म का विचार करते हैं तो आत्मा में कहीं भेद भासित नहीं होता, जैसे घट का विचार करने पर मृत्तिका के अतिरिक्त घट नाम का कोई पदार्थ सिद्ध नहीं होता । शरीर की जब मीमांसा करते हैं तो उस में स्थूलत्व कृशत्व, गौरत्व आदि अज्ञान जन्य भेद प्रतीत होते हैं, वे भी मिथ्या हैं । जैसे स्वप्न में निद्रा के कारण सुख दुःख प्रतीत होते हैं, जीव उनको सत्य मान सुखी दुःखी होता है लेकिन क्या जागने पर वे सुख दुःख रहते हैं, नहीं । ऐसे आत्मा में अनात्मधर्मों का आरोप करके जीव दुःखी होता है, ज्ञान होने पर सब विलीन हो जाते हैं ।
वेदान्तसिद्धांत में- “आप आत्मा में अनात्म धर्मों का आरोप करके शोच करते हैं । इनको अज्ञानजन्य मान कर भय को त्याग कर सुखी हो जावो ।”
(क्रमशः)
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