रविवार, 14 जून 2020

*‘अनुरागरूपी बाघ’*


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*दादू माया मोट विकार की, कोइ न सकै डार ।* 
*बहि बहि मूये बापुरे, गये बहुत पचि हार ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)* 
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*साभार ~ श्रीरामकृष्ण-वचनामृत{श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)}*
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(४)
गोपीप्रेम । *‘अनुरागरूपी बाघ’*
श्रीरामकृष्ण ने कुछ गाने के लिए कहा । रामलाल और कालीमन्दिर के एक ब्राह्मण कर्मचारी गाने लगे । ठेका लगाने के लिए एक बायाँ मात्र था । कुछ भजन गाये गये ।
श्रीरामकृष्ण(भक्तों से)- बाघ जैसे दूसरे पशुओं को खा जाता है, वैसे ‘अनुरागरूपी बाघ’ काम-क्रोध आदि रिपुओं को खा जाता है । एक बार ईश्वर पर अनुराग होने से फिर काम-क्रोध आदि नहीं रह जाते । गोपियों की ऐसी ही अवस्था हुई थी । श्रीकृष्ण पर उनका ऐसा ही अनुराग था ।
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“और है ‘अनुराग-अंजन ।’ श्रीमती(राधा) कहती हैं- ‘सखियों, मैं चारों ओर कृष्ण ही देखती हूँ । उन लोगों ने कहा- ‘सखि, तुमने आँखों में अनुराग-अंजन लगा लिया है, इसीलिए ऐसा देखती हो ।’
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“इस प्रकार लिखा है कि मेढक का सिर जलाकर उसका अंजन लगाने से चारों ओर साँप ही साँप दीख पड़ते हैं । “जो लोग केवल कामिनी-कांचन में पड़े हुए हैं, कभी ईश्वर का स्मरण नहीं करते, वे बद्ध जीव हैं । उन्हें लेकर क्या कभी महान् कार्य हो सकता है? जैसे कौए का चोंच मारे हुए आम को ठाकुरसेवा में लगाने की तो क्या, खाने में भी हिचकिचाहट होती है ।
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“संसारी जीव, बद्धजीव, ये रेशम के कीड़े हैं । यदि चाहें तो कोश को काटकर बाहर निकल सकते हैं; परन्तु खुद जिस घर को बनाया है, उसे छोड़ने में बड़ा मोह होता है । फल यह होता है उसी में उनकी मृत्यु हो जाती है । “जो मुक्त जीव हैं, वे कामिनी-कांचन के वशीभूत नहीं होते । कोई कोई कीड़े(रेशम के)जिस कोये को इतने प्रयत्न से बनाते हैं, उसे काटकर निकल भी आते हैं । परन्तु ऐसे एक ही दो होते हैं । “माया मोह में डाले रहती है । दो एक मनुष्यों को ज्ञान होता है । वे माया के भुलावे में नहीं आते-कामिनी-कांचन के वशीभूत नहीं होते ।
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*“साधनसिद्ध*और *कृपासिद्ध*। कोई कोई बड़े परिश्रम से खेत में पानी खींचकर लाते हैं । यदि ला सके तो फसल भी अच्छी होती है । किसी किसी को पानी सींचना ही नहीं पड़ा, वर्षा के जल से खेत भर गया । उसे पानी सींचने के लिए कष्ट नहीं उठाना पड़ा । माया के हाथ से रक्षा पाने के लिए कष्टसाध्य साधनभजन करना पड़ता है । कृपासिद्ध को कष्ट नहीं उठाना पड़ता परन्तु ऐसे दो ही एक मनुष्य होते हैं ।
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“और हैं *नित्यसिद्ध*। इनका ज्ञान-चैतन्य-जन्म-जन्मान्तरों में बना ही रहता है । मानो फौआरे की कल बन्द है, मिस्त्री ने इसे उसे खोलते हुए उसको भी खोल दिया और उससे फर्र से पानी निकलने लगा । जब नित्यसिद्ध का प्रथम अनुराग मनुष्य देखते हैं तब आश्चर्य से कहने लगते हैं- ‘इतनी भक्ति, इतना वैराग्य, इतना प्रेम इसमें कहाँ था ?’
(क्रमशः) 

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