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*पंडित श्री जगजीवनदास जी की अनभै वाणी*
*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*५. परचा कौ अंग ~ ७७/८०*
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तेज पुंज महि सैन७ करि, तेज पुंज मंहि झूल ।
कहि जगजीवन तेज हरि, निरख नूर नित फूल ॥७७॥
{७. सैन-शयन(लेटना)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, तेज पुंज में ही आसन पर विश्राम हो तेज पुंज में आनंद हिलोर का अनुभव हो प्रभु के तेजोमय स्वरूप को देख कर आनंदित हों, गर्वित हों ।
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तेज पुंज की आरती, भाव भगति जस जोति ।
कहि जगजीवन देव हरि, परसि प्रांन तजि छोति ॥७८॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, प्रभु के तेज आरती में भाव भक्ति व यश की ज्योति है । इस स्थिति में प्रभु बिना भेदभाव के सबको परसते हैं या आशीर्वाद करते हैं ।
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तेज पुंज महि तेज तन, रवि ससि अनंत प्रकास ।
तहां मन निहचल आतमा, सु कहि जगजीवनदास ॥७९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि, तेज पुंज में तैजोमय देह है वहां आनंत रवि चन्द्र प्रकाशित हैं । वहां मन और आत्मा सुस्थिर होता है ।
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मनमानी८ सेवा करी, मोहे त्रिभुवन राइ ।
कहि जगजीवन मानवंत, सेज रमै रस पाइ ॥८०॥
{८. मनमानी-मनोनुकूल(=यथेच्छ)}
संतजगजीवन कहते हैं कि, प्रभु नियमानुसार जो करते हैं, प्रभु उनसे प्रसन्न रहते हैं, फिर वे माननी जन आनंद से प्रभु सामिप्य सुख प्राप्त कर आनंद में रहते हैं ।
(क्रमशः)
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