सोमवार, 22 जून 2020

*१६६. श्री कृष्‍णान्‍वेषण*

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*विरह अग्नि में जालिबा, दरशन के तांईं ।*
*दादू आतुर रोइबा, दूजा कुछ नांहिं ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ विरह का अंग)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१६६. श्री कृष्‍णान्‍वेषण*
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पयोराशेस्तीरे स्फुरदुपवनलीकनया
मुहुर्वृन्‍दारण्‍यस्‍मरणजनितप्रेमविवश:।
क्‍वचित् कृष्‍णावृत्तिप्रचलरसनो भक्तिरसिक:
स चैतन्‍य: किं मे पुनरपि दृशोर्यास्‍यति पदम्॥[१]
([१] समुद्र तट के सुन्‍दर उपवन को देखकर प्रभु को बार-बार वृन्‍दावन की निभृत निकुंज याद आने लगी। उसी अनुपम अरण्‍य के स्‍मरणमात्र से ही प्रभु प्रेमविवश हो गये। उन भक्तिरसिक श्रीगौरांग की चंचल रसना निरन्‍तर ‘कृष्‍ण-कृष्‍ण’ इन नामों की आवृत्ति करने लगी। ऐसे वे श्री गौरांग फिर कभी हमारे दृष्टिगोचर होंगे क्‍या ? स्‍त. मा. १ चैतन्‍याष्‍टक ६)
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महाप्रभु एक दिन समुद्र की ओर स्‍नान करने के निमित्त जा रहे थे। दूर से ही समुद्र तट की शोभा देखकर वे मुग्‍ध हो गये। वे खड़े होकर उस अद्भुत छटा को निहारने लगे। अनन्‍त जलराशि से पूर्ण सरितापति सागर अपने नीलरंग के जल से अठखेलियाँ करता हुआ कुछ गम्‍भीर-सा शब्‍द कर रहा है।
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समुद्र के किनारे पर खजूर, ताड, नारियल और अन्‍य विविध प्रकार के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष अपने लम्‍बे-लम्‍बे पल्‍लवरूपी हाथों से पथिकों को अपनी ओर बुला-से रहे हैं। वृक्षों के अंगों का जोरों से आलिंगन किये हुए उनकी प्राणप्‍यारी लताएँ धीरे-धीरे अपने कोमल करों को हिला-हिलाकर संकेत से उन्‍हें कुछ समझा रही हैं।
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नीचे एक प्रकार की नीली-नीली घास अपने हरे-पीले-लाल तथा भाँति-भाँति के रंग वाले पुष्‍पों से उस वन्‍यस्‍थली की शोभा को और भी अधिक बढ़ाये हुए हैं। मानो श्रीकृष्‍ण की गोपियों के साथ होने वाली रासक्रीडा के निमित्त नीले रंग के विविध चित्रों से चित्रित कालीन बिछ रही हो।
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महाप्रभु उस मनमोहिनी दिव्‍य छटा को देखकर आत्‍मविस्‍मृत से बन गये वे अपने को प्रत्‍यक्ष वृन्‍दावन में ही खड़ा हुआ समझने लगे। समुद्र का नीला जल उन्‍हें यमुना जल ही दिखायी देने लगा। उस क्रीडा स्‍थली में सखियों के साथ श्रीकृष्‍ण को क्रीड़ा करते देखकर उन्‍हें रास में भगवान के अन्‍तर्धान होने की लीला स्‍मरण हो उठी।
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बस, फिर क्‍या था, लगे वक्षों से श्रीकृष्‍ण का पता पूछने। वे अपने को गोपी समझकर वृक्षों के समीप जाकर बडे ही करुणस्‍वर में उन्‍हें सम्‍बोधन करके पूछने लगे –
हे कदम्‍ब ! हे निम्‍ब ! अंब ! क्‍यों रहे मौन गहि।
हे बट ! उतँग सुरग वीर कहु तुम इत उत लहि॥
हे अशोक ! हरि-सोक लोकमनि पियहि बतावहु।
अहो पनस ! सुभ सरस मरत-तिय अमिय पियावहु॥
इतना कहकर फिर आप-ही-आप कहने लगे– ‘अरी सखियो ! ये पुरुष-जाति के वृक्ष तो उस सांवले के संगी-साथी हैं। पुरुष जाति तो निर्दयी होती है। ये परायी पीर को क्‍या जाने। चलो, लताओं से पूछें। स्‍त्री-जाति होने उनका चित्त दयामय और कोमल होता है, वे हमें अवश्‍य ही प्‍यारे का पता बतावेंगी।
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सखि ! इन लताओं से पूछो। देखे, ये क्‍या कहती है?’ यह कहकर आप लताओं को सम्‍बोधन करके उसी प्रकार अश्रुविमोचन करते हुए गद्गद कण्‍ठ से करुणा के साथ पूछने लगे–
हे मालति ! हे जाति ! जूथके ! सुनि हित दे चित।
मन-हरन मन-हरन लाल गिरिधरन लखे इत॥
हे केतकि ! इततें कितहूँ चितये पिय रूसे।
कै नँदनन्‍दन मन्‍द मुसुकि तुमरे मन मूसे॥
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फिर स्‍वत: ही कहने लगे– ‘अरी सखियों ! ये तो कुछ भी उत्तर नहीं देतीं। चलो, किसी और से ही पूछें।’ यह कहकर आगे बढने लगे। आगे फलों के भार से नवे हुए बहुत-से वृक्ष दिखायी दिये। उन्‍हें देखकर कहने लगे–‘सखि ! ये वृक्ष तो अन्‍य वृक्षों की भाँति निर्दयी नहीं जान पडते।
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देखो, सम्‍पत्तिशाली होकर भी कितने नम्र हैं। इन्‍होंने इधर से जाने वाले प्‍यारे का अवश्‍य ही सत्‍कार किया होगा। क्‍योंकि जो सम्‍पत्ति पाकर भी नम्र होते हैं, उन्‍हें कैसा भी अतिथि क्‍यों न हो, प्राणों से भी अधिक प्रिय होता है। इनसे प्‍यारे का पता अवश्‍यक लग जायगा। हाँ, तो मैं ही पूछती हूँ’।
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यह कहकर वे वृक्षों से कहने लगे–
हे मुत्‍ताफल ! बेल धरे मुत्‍ताफल माला।
देखे नैन-बिसाल मोहना नँदके लाला॥
हे मन्‍दार ! उदार बीर करबीर ! महामति।
देखे कहूँ बलवीर धीर मन-हरन धीरगति॥
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फिर चन्दन की ओर देखकर कहने लगे– ‘यह बिना ही मांगे सबको शीतलता और सुगन्‍ध प्रदान करता है, यह हमारे ऊपर अवश्‍य दया करेगा, इसलिये कहते है–
हे चन्‍दन ! दुखदन्‍दन ! सबकी जरन जुडावहु।
नँदनन्‍दन, जगबन्‍दन, चन्‍दन ! हमहि बतावहु॥
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फिर पुष्‍पों से फूली हुई लताओं की ओर देखकर मानो अपने साथ की सखियों से कह रहे हैं–
पूछो री इन ल‍तनि फूलि रहिं फूलनि जोई।
सुन्‍दर पियके परस बिना अस फूल न होई॥
प्‍यारी सखियो ! अवश्‍य ही प्‍यारे ने अपनी प्रिय सखी को प्रसन्‍न करने के निमित्त इन पर से फूल तोड़े हैं, तभी तो ये इतनी प्रसन्न हैं। प्यारे के स्पर्श बिना इतनी प्रसन्नता आ ही नहीं सकती।
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यह कह कर आप उनकी ओर हाथ उठा-उठाकर कहने लगे–
हे चम्‍पक ! हे कुसुम ! तुम्‍हैं छबि सबसों न्‍यारी।
नेंक बताय जु देहु जहाँ हरि कुंज बिहारी॥
इतने में कुछ मृग उधर से दौड़ते हुए आ निकले। उन्‍हें देख-देखकर जल्‍दी कहने लगे–
हे सखि ! हे मृगवधू ! इन्‍हें किन पूछहू अनुसरि।
डहडहे इनके नैन अबहिं कहुँ देखे हैं हरि॥
(क्रमशः)

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