सोमवार, 22 जून 2020

*१६३. प्रेम की अवस्‍थाओं का संक्षिप्‍त परिचय*

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*पीव के विरह वियोग, तन की सुधि नहीं हो ।*
*तलफि तलफि जीव जाइ, मृतक ह्वै रही हो ॥*
*दुखित भई हम नारि, कब हरि आवे हो ।*
*तुम्ह बिन प्राण अधार, जीव दुख पावे हो ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ४१७)*
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साभार ~ @Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१६३. प्रेम की अवस्‍थाओं का संक्षिप्‍त परिचय*
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अर्थात हे कृष्‍ण ! राधिका जी की दशा क्‍या पूछते हो, उनकी तो दशा ही विचित्र है। घर के भीतर घूमती रहती है, बिना बात ही खिल-खिलाकर हँसने लगती है। चेतनावस्‍था में हो या अचेतनावस्‍था में, तुम्‍हारे ही सम्‍बन्‍ध के उद्गार निकालती है। कभी धूलि में ही लोट जाती है, कभी थर-थर कांपने ही लगती है, हे मुरारे ! मैं क्‍या बताऊँ, वह विधुवदनी राधा तुम्‍हारे विषम विरह खेद से विभ्रान्‍त सी हुई विचित्र ही चेष्‍टाएँ करती हैं ।’
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नीचे के पद में भारतेन्‍दु बाबू ने भी उन्‍मादिनी का बड़ा ही सुन्‍दर चित्र खींचा है, किन्‍तु इसे ‘विरहोन्‍माद’ न कहकर ‘प्रेमोन्‍माद’ कहना ही ठीक होगा। सुनिये, साँवरे के सनेह में सनी हुई एक सखी की कैसी विचित्र दशा हो गयी है, पद्य पढ़ते-पढ़ते भाव सजीव होकर आँखों के सामने नृत्‍य करने लगता है–
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भूली-सी, भ्रकी-सी, चौंकी, जकी-सी, थकी-सी गोपी,
दुखी-सी, र‍हति कछु नाहीं सुधि देह की।
मोही-सी, लुभाई-सी, कछु मोदक-सो खायो सदा
बिसरी-सी रहै नेकु खबर न गेह की॥
रिसभरी रहै, कबौं फूली न समाति अंग,
हँसि-हँसि कहै बात अधिक उमेह की।
पूछेते खिसानी होय, उत्तर न आवै ताहि,
जानी हम जानी है निसानी य सनेह की॥
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*मोह* – अत्‍यन्‍त ही वियोग में अंगों के शिथिल हो जाने से जो एक प्रकार की मूर्छा-सी हो जाती है उसे मोह कहते हैं। यह मृत्‍यु के समीप की दशा है। इसका चित्र तो हमारे रसिक हरिचन्‍द जी ही बड़़ी खूबी से खींच सकते हैं। लीजिये मोह में मग्‍न हुई एक विरहिन के साक्षात दर्शन कीजिये–
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थाकी गति अंगन की, मति परि गई मंद,
सूख झांझरी-सी ह्वै कैं देह लागी पियरान।
बावरी-सी बुद्धि भई, हँसी काहू छीन लई,
सुख के समाज, जित तित लागे दूर जान॥
‘हरीचंद’ रावरे विरह जग दुखमयो,
भयो कछु और होनहार लागे दिखरान।
नैन कुम्हिलान लागे, बैनहु अथान लागे,
आयो प्राननाथ ! अब प्रान लागे मुरझान॥
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सचमुच यदि प्राणनाथ के पधारने की आशा न होती, ये कुम्हलाये हुए नैन और अथाये हुए बैन कब के पथरा गये होते। मुरझाये हुए प्राण प्राणनाथ की आशा से ही अटके हुए हैं। मोह की दशा का इससे उत्‍तम उदाहरण और कहाँ मिलेगा?
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*मृत्‍यु* – मृत्‍यु की अब हम व्‍याख्‍या करें। मृत्‍यु हो गयी तो झगड़ा मिटा, दिन-रात के दु:ख से बचे, किन्‍तु ये मधुर रस के उपासक रागानुयायी भक्‍त कवि इतने से ही विरहिन का पिण्‍ड नहीं छोड़ेंगे। मृत्‍यु का वे अर्थ करते हैं ‘मृत्‍यु के समान अवस्‍था हो जाना’ इसका दृष्‍टान्‍त लीजिये। बँगला भाषा के प्रसिद्ध पदकर्ता श्री गोविन्‍द दास जी की अमर वाणी में ही व्रजवासियों की इस दसवीं दशा का दर्शन कीजिये–
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माधव ! तुहु यव निरदय भेल
मिछई अवधि दिन, गणि कत राखब, ब्रजवधू-जीवन-शेल॥१॥
कोई धरनितल, कोई यमुनाजल, कोइ कोइ लुठइ निकुंज॥२॥
एतदिन विरहे, मरणपथ पेखलु तोहे तिरिवध पुनपुंज॥३॥
तपत सरोवर, थोरि सलिलि जनु आकुल सफरी परान॥४॥
जीवन मरन, मरण वर जीवन ‘गोविन्‍ददास’ दुख जान॥५॥
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दूती कह रही है– ‘प्‍यारे माधव ! भला यह भी कोई अच्‍छी बात है, तुम इतने निर्दय बन गये? दुनिया भर के झूठे? कल की कह आये थे, अब कल-ही-कल कितने दिन हो गये। इस प्रकार झूठमूठ दिन गिनते-गिनते कब तक उन सबको बहलाते रहेंगे।
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अब तुम्‍हें व्रज की दयनीय दशा क्‍या सुनाऊँ। वहाँ का दृश्‍य बड़ा करुणोत्‍पादक है। कोई गोपी तो पृथ्‍वी पर लोट-पोट हो रही है, कोई यमुना जी में कूद रही है, कोई-कोई निभृत निकुंजों में ही लंबी-लंबी सांसें ले रही हैं। इस प्रकार वे अत्‍यन्‍त ही कष्‍ट के साथ रात्रि-दिन को बिता रही हैं, तुम्‍हारे विरह में अब वे मृत्‍यु के समीप ही पहुँच चुकी हैं।
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यदि वे सब मर गयीं तो सैकड़ों स्त्रियों के वध का पाप तुम्‍हारे ही सिर लगेगा। उनकी दशा ठीक उन मछलियों की सी है जो थोड़े जल वाले गड्ढे में पड़ी हों और सूर्य उस गड्ढे के सब जल को सोख चुका हो, वे जिस प्रकार थोड़ी-सी कीच में सूर्य की तीक्ष्‍ण किरणों से तड़पती रहती हैं उसी प्रकार वे तुम्‍हारे विरह में तड़प रही हैं।
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यह जीते हुए ही मरण है, यही नहीं किन्‍तु इस जीवन से तो मरण ही लाख दर्जे अच्‍छा। गोविन्‍द दास कहते हैं, उनके दु:ख को ऐसा ही समझो !’ नियमानुसार तो यहाँ विरह का अन्‍त हो जाना चाहिये था, किन्‍तु वैष्‍णव कवि मृत्‍यु के बाद भी फिर उसे होश में लाते हैं और फिर मृत्‍यु से आगे भी बढ़ते हैं। रागमार्गीय ग्रन्‍थों में इससे आगे के भावों का वर्णन है।
(क्रमशः)

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