सोमवार, 22 जून 2020

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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द* 
*राग सोरठ १९(गायन समय रात्रि ९ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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३११ - परिचय हैरान । खेमटा ताल
राम राइ ! मोकों अचरज आवै, 
तेरा पार न कोई पावै ॥टेक॥
ब्रह्मादिक सनकादिक नारद, 
नेति नेति जे भावै ।
शरण तुम्हारी रहें निश वासर, 
तिन को तूँ न लखावै॥१॥
शँकर शेष सबै सुर मुनिजन, 
तिनको तूँ न जनावै ।
तीन लोक रटैं रसना भर, 
तिनको तूँ न दिखावै ॥२॥
दीन लीन राम रंग राते, 
तिनको तूँ संग लावै ।
अपने अँग की युक्ति न जानैं, 
सो मन तेरे भावै ॥३॥
सेवा सँजम करैं जप पूजा, 
शब्द न तिन्हैं सुनावै ।
मैं अछोप हीन मति मेरी, 
दादू को दिखलावै ॥४॥
इति राग सोरठ समाप्त: ॥१९॥पद १४॥
साक्षात्कार किये स्वरूप की अद्भुतता बता रहे हैं - विश्व के राजा राम ! आपके स्वरूप का साक्षात्कार करने पर मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है । आप का पार कोई भी नहीं पा सकता । 
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ब्रह्मादिक प्रजापति, सनकादिक ज्ञानी, नारदादिक देवर्षि जो हैं - वे आपके स्वरूप के विषय में, "यह नहीं, यह नहीं" कह करके ही प्रवचन करते हैं । जो आपकी शरण में रात्रि - दिन निरँतर रहते हैं, उनको भी आप अपना आदि, अन्त नहीं दिखाते । 
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जो आपके विशेष भक्त शँकरजी व शेषजी हैं तथा सँपूर्ण देवता और जितने मुनिजन हैं, उनको भी आप अपना आदि, अन्त नहीं बताते और जो भी तीनों लोकों में भक्तजन आपके नाम को रसना से इच्छा भर कर रटते हैं, उनको भी आप अपना आदि, अन्त नहीं दिखाते । 
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जो सर्व प्रकार के अभिमान से रहित, दीन भाव से आप राम के प्रेम - रँग में अनुरक्त होकर आप में ही लीन हुए रहते हैं, उनको आप अपने अभेद रूप संग में ले लेते हैं । जो अपने शरीर की आसक्ति पूर्वक पोषण की युक्ति नहीं जानते, वे भक्त ही आप के मन को प्रिय लगते हैं । 
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जो साभिमान आपकी सेवा करते हैं, सँयम पूर्वक जप तथा पूजा करते हैं, उनको आप अपने मुख का शब्द तक नहीं सुनाते । देखिये, मैं हीन - मति हूं, अपने बुद्धि - बल से तो आपको छू भी नहीं सकता, किन्तु निरभिमान और दीन भाव से आपका भजन करने से ही आप अपने अति अद्भुत स्वरूप को मुझे दिखा रहे हैं ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका राग सोरठ समाप्त: ॥ १९ ॥
(क्रमशः)

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