रविवार, 7 जून 2020

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*श्री दादू अनुभव वाणी, द्वितीय भाग : शब्द* 
*राग नट नारायण १८(गायन समय रात्रि ९ से १२)* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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२९७ - हैरान । उत्सव ताल
https://youtu.be/3bWXXKkYtiQ
हम तैं दूर रही गति तेरी ।
तुम हो तैसे तुम हीं जानो, कहा बपरी मति मेरी ॥टेक॥
मन तैं अगम दृष्टि अगोचर, मनसा की गम नाँहीं ।
सुरति समाइ बुद्धि बल थाके, वचन न पहुंचैं ताँहीं ॥१॥
योग न ध्यान ज्ञान गम नांहीं, समझ - समझ सब हारे ।
उनमनी रहत प्राण घट साधे, पार न गहत तुम्हारे ॥२॥
खोजि परे गति जाइ न जानी, अगह गहन कैसे आवै ।
दादू अविगत देहु दया कर, भाग बड़े सो पावै ॥३॥
इति राग नट नारायण समाप्त: ॥१८॥पद ७॥
ब्रह्म स्वरूप की आश्चर्यता दिखा रहे हैं - प्रभो आपका स्वरूप हमारे मन इन्द्रियों के ज्ञान से दूर ही रहा है । जैसे आप हैं, वैसे तो अपने को आप ही जानते हो । मेरी तुच्छ बुद्धि तो आपको जान ही क्या सकती है ? 
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आप मन से अगम और दृष्टि से अगोचर हैं, बुद्धि आपके स्वरूप में प्रविष्ट नहीं हो सकती । जहां बुद्धि की शक्ति थक जाती है, वहां वचन तो पहुंचता ही नहीं, अत: सँत - जन ब्रह्माकार वृत्ति द्वारा ही आप में समाये रहते हैं । 
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आपके वास्तविक स्वरूप के अन्त तक योग, ध्यान और ज्ञान द्वारा भी गमन नहीं होता । योगी, ध्यानी, ज्ञानी आदि आपके स्वरूप को समझकर मध्य में ही थक गये हैं, पार नहीं पा सके । शरीरस्थ प्राण को साधना द्वारा अधीन करके समाधि में रहने वाले भी आपके स्वरूप का पार नहीं पा सकते । 
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अनेक खोजी लोक आपको खोजने के लिये पीछे पड़े, किन्तु वे भी स्वरूप का अन्त न जान सके । वह अग्रान है, ग्रहण करने में कैसे आये । हां, वे मन इन्द्रियों के अविषय परब्रह्म ही यदि अपना साक्षात्कार करा देवें, तो जिसका महान् भाग्य हो, वह उनका दर्शन प्राप्त करता है ।
इति श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका राग नट नारायण समाप्त : ॥१८॥

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