सोमवार, 13 जुलाई 2020

१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण


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*जब द्रवो तब दीजिये, तुम पै मांगूं येहु ।*
*दिन प्रति दर्शन साधु का, प्रेम भक्ति दृढ़ देहु ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ साधु का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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१७६. महाप्रभु के वृन्‍दावनस्‍थ छ: गोस्‍वामिगण
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रुद्रोअद्रिं जलधिं हरिर्दिविषदो दूरं विहायाश्रिता:
भागीन्‍द्रा: प्रबला अपि प्रथमत: पातालमूले स्थिता:।
लीना पद्मवने सरोजनिलया मन्‍येऽर्थिसार्थाद्भिया
दीनोद्धारपरायणा: कलियुगे सत्‍पुरुषा: केवलम्॥[१]
([१] याचकों का समूह मुझसे कुछ मांगने लगे, इस भय से भगवान शंकर पर्वत पर रहने लगे, विष्‍णु ने समुद्र में डेरा डाला, समस्‍त देवताओं ने सुदूरवर्ती आकाश की शरण ली, वासुकि आदि नागराजों ने समर्थ होकर भी पहले से ही पाताल में अपना स्‍थान बना लिया है और लक्ष्‍मी जी कमलवन में छिप गयीं। अब तो इस कलिकाल में केवल संत पुरुष ही दीनों का उद्धार करने वाले रह गये हैं।)
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महाप्रभु चैतन्‍य देव के छ: गोस्‍वामी अत्‍यन्‍त ही प्रसिद्ध हैं। उनके नाम (१) श्रीरूप, (२) श्रीसनातन, (३) श्री जीव, (४) श्री गोपालभट्ट, (५) श्री रघुनाथ भट्ट और (६) श्रीरघुनाथदास जी हैं। इन छहों का थोड़ा-बहुत विवरण पाठक पिछले प्रकरणों में पढ़ ही चुके होंगे।
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श्रीरूप और सनातन तो प्रभु की आज्ञा लेकर ही पुरी से वृन्‍दावन को गये थे, बस, तब से वे फिर गौड़देश में नहीं लौटे। श्रीजीव इनके छोटे भाई अनूप के प्रिय पुत्र थे। पूरा परिवार-का-परिवार ही विरक्‍त बन गया। दैवी परिवार था। जीव गोस्‍वामी या तो महाप्रभु के तिरोभाव होने के अनन्‍तर वृन्‍दावन पधारे होंगे या प्रभु के अप्रकट होने के कुद ही काल पहले।
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इनका प्रभु के साथ भेंट होने का वृत्तान्‍त कहीं नहीं मिलता। ये नित्‍यानन्‍द जी की आज्ञा लेकर ही वृन्‍दावन गये थे, इससे महाप्रभु का अभाव ही लक्षित होता है। रघुनाथ भट्ट को प्रभु ने स्‍वयं ही पुरी से भेजा था। गोपाल भट्ट जब छोटे थे, तभी प्रभु ने उनके घर दक्षिण की यात्रा में चातुर्मास बिताया था, इसके अनन्‍तर पुन: इनको प्रभु के दर्शन नहीं हुए।
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रघुनाथदास जी प्रभु के लीला संवरण करने के अनन्‍तर और स्‍वरूप गोस्‍वामी के परलोक-गमन के पश्‍चात वृन्‍दावन पधारे और फिर उन्‍होंने वृन्‍दावन की पावन भूमि छोड़कर कहीं एक पैर भी नहीं रखा। व्रज में ही वास करके उन्‍होंने अपनी शेष आयु व्‍यतीत की। इन सबका अत्‍यन्‍त ही संक्षेप में पृथक्-पृथक् वर्णन आगे करते हैं।
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*१– श्रीरूप जी गोस्‍वामी*
श्री रूप जी और सनातन जी का परिचय पाठक पीछे प्राप्‍त कर चुके हैं। अनुमान से श्री रूप जी का जन्‍म संवत १५४५ के लगभग बताया जाता है। ये अपने अग्रज श्री सनातन जी से साल-दो-साल छोटे ही थे किन्‍तु प्रभु के प्रथम कृपापात्र होने से ये वैष्‍णव-समाज में सनातन जी के बड़े भाई ही माने जाते हैं।
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रामकेलि में इन दोनों भाइयों की प्रभु से भेंट, रूप जी का प्रयाग में प्रभु से मिलन, पुरी में पुन: प्रभु के दर्शन-नाटकों की रचना, प्रभु की आज्ञा से गौड़ देश होते हुए पुन: वृन्‍दावन में आकर निरन्‍तर वास करते रहने के समाचार तो पाठक पिछले अध्‍यायों में पढ़ ही चुके होंगे, अब इनके वृन्‍दावन वास की दो-चार घटनाएं सुनिये। आप ब्रह्मकुण्‍ड के समीप निवास करते थे।
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एक दिन आप निराहार रहकर ही भजन कर रहे थे, भूख लग रही थी, किन्‍तु ये भजन को छोड़कर भिक्षा के लिये जाना नहीं चाहते थे, इतने ही में एक काले रंग का ग्‍वाले का छोकरा एक मिट्टी के पात्र में दुग्‍ध लेकर इनके पास आया और बोला– ‘लो बाबा ! इसे पी लो। भूखे भजन क्‍यों कर रहे हो, गांवों में जाकर भिक्षा क्‍यों नहीं कर आते।’ तुम्‍हें पता नहीं– भूखे भजन न होई, यह जानहिं सब कोई।
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रूप जी ने वह दुग्‍ध पीया। उसमें अमृत से भी बढ़कर स्‍वाद निकला। तब तो वे समझ गये कि ‘सांवरे रंग का छोकरा वही छलिया वृन्‍दावन वासी है, वह अपने राज्‍य में किसी को भूख नहीं देख सकता।’ आश्‍चर्य की बात तो यह थी, जिस पात्र में वह छोकरा दुग्‍ध दे गया था, वह दिव्‍य पात्र पता नहीं अपने-आप ही कहाँ चला गया।
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इस समाचार को सुनकर श्रीसनातन जी दौड़े आये और उन्‍हें आलिंगन करके कहने लगे– ‘भैया ! यह मनमोहन बडा सुकुमार है, इसे कष्‍ट मत दिया करो। तुम स्‍वयं ही व्रजवासियों के घरों से टुकड़े माँग लाया करो।’ उस दिन से श्रीरूपजी मधुकरी भिक्षा नित्‍यप्रति करने जाने लगे।
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एक दिन श्रीगोविन्‍ददेव जी ने इन्‍हें स्‍वप्‍न में आज्ञा दी कि ‘भैया ! मैं अमुक स्‍थान में जमीन के नीचे दबा हुआ पड़ा हूँ। एक गौ रोज मुझे अपने स्‍तनों से दूध पिला जाती है, तु उस गौ को ही लक्ष्‍य करके मुझे बाहर निकालो और मेरी पूजा प्रकट करो।’ प्रात:काल ये उठकर उसी स्‍थान पर पहुँचे।
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वहाँ उन्‍होंने देखा– ‘एक गौ वहाँ खड़ी है और उसके स्‍तनों में आप से आप ही दूध बहकर एक छिद्र में होकर नीचे जा रहा है।’ तब तो उनके आनन्‍द का ठिकाना नहीं रहा। ये उसी समय उस स्‍थान को खुदवाने लगे। उसमें से गोविन्‍द देव जी की मनमोहिनी मूर्ति निकली, उसे लेकर ये पूजा करने लगे।
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कालान्‍तर में जयपुर के महाराज मानसिंह जी ने गोविन्‍ददेव जी का लाल पत्‍थरों का एक बड़ा ही भव्‍य और विशाल मन्दिर बनवा दिया जो अद्यावधि श्री‍वृन्‍दावन की शोभा बढ़ा रहा है। औरंगजेब के आक्रमण के भय से जयपुर के महाराज पीछे से यहाँ की श्रीमूर्ति को अपने यहाँ ले गये थे।
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पीछे फिर ‘नये गोविन्‍ददेव जी’ का नया मन्दिर बना, जिसमें गोविन्‍ददेव जी के साथ ही अगल-बगल में श्री चैतन्‍य देव और श्रीनित्‍यानन्‍द जी के विग्रह भी पीछे से स्‍थापित किये गये, जो अब भी विद्यमान हैं। जब श्री रूप जी नन्‍द ग्राम में निवास करते थे, तब श्री सनातन जी एक दिन उनके स्‍थान पर उनसे मिलने गये। इन्‍होंने अपने अग्रज को देखकर उनको अभिवादन किया और बैठने के लिये सुन्‍दर-सा आसन दिया।
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श्री रूप जी अपने भाई के लिये भोजन बनाने लगे। उन्‍होंने प्रत्‍यक्ष देखा कि भोजन का सभी सामान प्‍यारी जी ही जुटा रही हैं, सनातन जी को इससे बड़ा क्षोभ हुआ। वे चुपचाप बैठे देखते रहे। जब भोजन बनकर तैयार हो गया तो श्री रूप जी ने उसे भगवान के अर्पण किया, भगवान प्‍यारी जी के साथ प्रत्‍यक्ष होकर भोजन करने लगे। उनका जो उच्छिष्‍ट महाप्रसाद बचा उसका उन्‍होंने श्री सनातन जी को भोजन कराया। उसमें अमृत से भी बढ़कर दिव्‍य स्‍वाद था।
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सनातन जी ने कहा– ‘भाई ! तुम बड़े भाग्‍यशाली हो, जो रोज प्‍यारी-प्‍यारे के अधरामृत-उच्छिष्‍ट अन्‍न का प्रसाद पाते हो, किन्‍तु सुकुमारी लाड़िली जी को तुम्‍हारे सामान जुटाने में कष्‍ट होता होगा, यही सोचकर मुझे दु:ख होता है।’
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इतना कहकर श्री सनातन जी चले गये और उनका जो उच्छिष्‍ट महाप्रसाद शेष रहा उसको बड़ी ही रुचि और स्‍वाद के साथ श्री रूप जी ने पाया। किसी काव्‍य में श्री रूप जी ने प्‍यारी जी की वेणी की काली नागिन से उपमा दी थी। यह सोचकर सनातन जी को बड़ा दु:ख हुआ कि भला प्‍यारी जी के अमृतपूर्ण आनन के समीप विषवाली काली नागिन का क्‍या काम?
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वे इसी चिन्‍ता में मग्‍न ही थे कि उन्‍हें सामने के कदम्‍ब के वृक्ष पर प्‍यारे के साथ प्‍यारी जी झूलती हुई दिखाई दीं। उनके सिर पर काले रंग की नागिन-सी लहरा रही थी, उनमें क्रूरता का काम नही, क्रोध और विष का नाम नहीं। वह तो परम सौम्‍या, प्रेमियों के मन को हरने वाली और चंचला-चपला बड़ी ही चित्त को अपनी ओर खींचने वाली नागिन थी।
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श्री सनातन जी को इससे बड़ी प्रसन्‍नता हुई और उनकी शंका का समाधान प्‍यारी जी ने स्‍वत: ही अपने दुर्लभ दर्शनों को देकर कर दिया। इस प्रकार इनके भक्ति और प्रेम के माहात्‍म्‍य की बहुत-सी कथाएं कही जाती हैं। ये सदा युगल माधुरी के रूप में छके-से रहते थे। अके-से, जके-से, भूले-से, भटके-से ये सदा वृन्‍दाविपिन की वनवीथियों में विचरण किया करते थे।
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इनका आहार था प्‍यारे-प्‍यारी की रूपसुधा का पान, बस, उसी के मद में ये सदा मस्‍त बने रहते। ये सदा प्रेम में मग्‍न रहकर नामजप करते रहते और शेष समय में भक्तिसम्‍बन्‍धी पुस्‍तकों का प्रणयन करते। इनके बनाये हुए भ‍क्तिभाव पूर्ण सोलह ग्रन्‍थ मिलते हैं।
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(१)हंसदूत, (२)उद्धवसन्‍देश, (३)कृष्‍णजन्‍मतिथिविधि, (४)गणोद्देशदीपिका (५)स्‍तवमाला, (६)विदग्‍धमाधव, (७)ललितामाधव, (८)दानलीला, (९)दानकेलिकौमुदी, (१०)भक्तिरसामृतसिन्‍धु, (११)उज्‍जवलनीलमणि, (१२)मथुरामहात्म्‍य (१३)आख्‍यातचन्द्रिका, (१४)पद्यावली, (१५)नाटकचन्द्रिका और (१६)लघुभागवतामृत।
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वृन्‍दावन में रहकर इन्‍होंने श्रीकृष्‍ण-प्रेम का साकार रूप खड़ा करके दिखला दिया। ये सदा नाम-संकीर्तन और पुस्‍तक-प्रणयन में ही लगे रहते थे। ‘वृन्‍दावन की यात्रा’ नामक पुस्‍तक में इनके वैकुण्‍ठवास की तिथि संवत १६४०(ईस्‍वी सन १५६३) की श्रावण शुक्‍ला द्वादशी लिखी है। इस प्रकार ये लगभग ७४ वर्षों तक इस धराधाम पर विराजमान रहकर भक्तितत्‍व का प्रकाश करते रहे।
(क्रमशः)

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