शनिवार, 18 जुलाई 2020

*१७७. श्री चैतन्‍य–शिक्षाष्‍टक*

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*हम तुम संग निकट रहैं नेरे,*
*हरि केवल कर गहिये ।*
*चरण कमल छाड़ि कर ऐसे,*
*अनत काहे को बहिये ॥*
(श्री दादूवाणी~ पद १८३)
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७७. श्री चैतन्य–शिक्षाष्टक*
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(३)
तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सष्णिुना।
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि:॥
हरिनाम संकीर्तन करने वाले पुरुष को किस प्रकार के गुरु बनाने चाहिये और दूसरों के प्रति उसका व्यवहार कैसा होना चाहिये, इसको कहते हैं – भागवत बनने वाले को मुख्यतया दो गुरु बनाने चाहिये – ‘एक तो तृण और दूसरा वृक्ष।'

*तृण से तो नम्रता की दीक्षा ले, तृण सदा सब के पैरों के नीचे ही पड़ा रहता है।
कोई दयालु पुरुष उसे उठाकर आकाश में चढ़ा देते हैं, तो वह फिर ज्यों का त्यों ही पृथ्वी पर आकर पड़ जाता है। वह स्वप्न में भी किसी के सिर पर चढ़ने की इच्छा नहीं करता।* तृण के अतिरिक्त दूसरे गुरु ‘वृक्ष’ से ‘सहिष्णुता’ की दीक्षा लेनी चाहिये।
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*सुन्दर वृक्ष का जीवन परोपकार के ही लिये होता है। वह भेद-भाव शून्य होकर समान भाव से सभी की सेवा करता रहता है।’ जिसकी इच्छा हो वही उसकी सुखद शीतल सघन छाया में आकर अपने तन की ताप बुझा ले। जो उसकी शाखाओं को काटता है, उसे भी वह वैसी ही शीतलता प्रदान करता है और जो जल तथा खाद से उसका सिंचन करता है, उसको भी वैसी ही शीतलता। उसके लिये शत्रु-मित्र दोनों समान हैं। उसके पुष्पों की सुगन्धि जो भी उसके पास पहुँच जाय, वही ले सकता है। उसके गोंद को जो चाहे छुटा लावे। उसके कच्चे-पके फलों को जिसकी इच्छा हो, वही तोड़ लावे। वह किसी से भी मना नहीं करेगा।*
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दुष्ट स्वभाव वाले पुरुष उसे खूब फलों से समृद्ध देखकर डाह करने लगते हैं और ईर्ष्यावश उसके ऊपर पत्थर फेंकते हैं, किन्तु वह उनके ऊपर तनिक भी रोष नहीं करता, उल्टे उसे पास यदि पके फल हुए तो सर्वप्रथम तो प्रहार करने वाले को पके ही फल देता है, यदि पके फल उस समय मौजूद न हुए तो कच्चे ही देकर अपने अपकारी के प्रति प्रेमभाव प्रदर्षित करता है।
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दुष्ट स्वभाव वाले उसी की छाया में बैठकर शान्ति लाभ करते हैं। पीछे से उसकी सीधी शाखाओं को काटने की इच्छा करते हैं। वह बिना किसी आपत्ति के अपने शरीर को कटाकर उनके कामों को पूर्ण करता है। उस गुरु से सहिष्णुता सीखनी चाहिये।
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मान तो मृगतृष्‍णा का जल है, इसलिये मान के पीछे जो पड़ा, वह प्‍यार से हिरण की भाँति सदा तड़फ-तड़फकर ही मरता है, मान का कहीं अन्‍त नहीं, ज्‍यों-ज्‍यों आगे को बढ़ते चलो त्‍यों ही त्‍यों वह बालुकामय जल और अधिक आगे बढ़ता चलेगा। इसलिये वैष्‍णव को मान की इच्‍छा कभी न करनी चाहिये, किन्‍तु दूसरों को सदा मान प्रदान करते रहना चाहिये।
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सम्‍मान रूपी सम्‍पत्ति की अनन्‍त खानि भगवान ने हमारे हृदय में दे रखी है। जिसके पास धन है और वह धन की आवश्‍यकता रखने वाले व्‍यक्ति को उसके माँगने पर नहीं देता, तो वह ‘कंजूस’ कहलाता है। इसलिये सम्‍मान रूपी धन को देने में किसी के साथ कंजूसी न करनी चाहिये। तुम परम उदार बनो, दोनों हाथों से सम्‍पत्ति को लुटाओ, जो तुमसे मान की इच्‍छा रखें, उन्‍हें तो मान देना ही चाहिये, किन्‍तु जो न भी मांगें उन्‍हें भी बस भर-भरकर देते रहो।
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इससे तुम्‍हारी उदारता से सर्वान्‍तरयामी प्रभु अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होंगे। सभी में उसी प्‍यारे प्रभु का रूप देखो। सभी को उनका ही विग्रह समझकर नम्रता पूर्वक प्रणाम करो। ऐसे बनकर ही इन सुमधुर नामों के संकीर्तन करने के अधिकारी बन सकते हो –
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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(४)
न धनं न जनं न सुन्‍दरीं कवितां वा जगदीश कामये।
मम जन्‍मनि जन्‍मनीश्‍वरे भवताद्भक्तिरहैतुकी त्वयि॥
संसार में सब सुखों की खानि धन है। जिसके पास धन है, उसे किसी बात की कमी नहीं। धनी पुरुष के पास गुणी, पण्डित तथा भाँति-भाँति की कलाओं के कोविद आप से आप ही आ जाते हैं। धन से बढ़कर शक्तिशालिनी जन-सम्‍पत्ति है। जिसकी आज्ञा में दस आदमी हैं। जिसके कहने से अनेकों आदमी क्षणभर में रक्‍त बहा सकते हैं, वह अच्‍छे–अच्‍छे धनिकों की भी परवा नहीं करता। पैसा पास न होने पर भी अच्‍छे-अच्‍छे लखपति-करोड़पति उससे थर-थर कांपते हैं। उस जनशक्ति से भी बढ़कर आकर्षक सुन्‍दरी है।
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शिक्षाष्‍टक सुन्‍दरी संसार में किसके मन को आ‍कर्षित नहीं कर सकती। अच्‍छे-अच्‍छे करोड़पतियों के कुमार सुन्‍दरी के तनिक से कटाक्ष पर लाखों रुपयों को पानी की तरह बहा देते हैं। हजारों वर्ष की संचित की हुई तपस्‍या को अनेकों तपस्‍वीगण उसकी टेढी भौंह के ऊपर वार देने को बाध्‍य होते हैं। धनी हो चाहे गरीब, पण्डित हो चाहे मूर्ख, शूरवीर हो अथवा निर्बल, जिसके ऊपर भी भौंहरूपी कमान ने कटाक्षरूपी बाण को खींकचर सुन्‍दरी ने एक बार मार दिया प्राय: वह मूर्च्छित हो ही जाता है।
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तभी तो रा‍जर्षि भर्तृहरि ने कहा है ‘कन्‍दर्पदर्पदलने विरला मनुष्‍या:’ अर्थात कामदेव के मद को चूर्ण करने वाले इस संसार में विरले ही मनुष्‍य हैं। कामदेव की सहचरी सेनानायिका सुन्‍दरी ही है। उस सुन्‍दरी से भी बढ़कर कविता है।
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जिसको कविता कामिनी ने अपना कान्‍त कहकर वरण कर लिया है, उसके मन त्रैलोक्‍य की सम्‍पत्ति भी तुच्‍छ है। वह धनहीन होने पर भी शाहंशाह है। प्रकृति उसकी मोल ली हुई चेरी है। वह राजा है, महाराजा है, दैव है और विधाता है। इस संसार में कमनीय कवित्‍वशक्ति किसी विरले ही भगवान पुरुष को प्राप्‍त हो सकती है।
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किन्‍तु प्‍यारे ! मैं तो धन, जन, सुन्‍दरी तथा कविता इनमें से किसी भी वस्‍तु की आकांक्षा नहीं रखता। तब तुम पूछोगे – ‘तो तुम और चाहते ही क्‍या हो ?’ इसका उत्तर यही है कि हे जगदीश ! मै कर्मबन्‍धनों को मेटने की प्रार्थना नहीं करता। मेरे प्रारब्‍ध को मिटा दो, ऐसी भी आकांक्षा नहीं रखता। भले ही मुझे चौरासी लाख क्‍या चौरासी अरब योनियों में भ्रमण करना पड़े, किन्‍तु प्‍यारे प्रभो ! तुम्‍हारी स्‍मृति हृदय से न भूले। तुम्‍हारे पुनीत पादपद्मों का ध्‍यान सदा अक्षुण्‍ण भाव से ज्‍यों का त्‍यों ही बना रहे। तुम्‍हारे प्रति मेरी अहैतु की भक्ति उसी प्रकार बनी रहे। मैं सदा गाता रहूँ –
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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(५)
अयि नन्‍दतनूज किंकरं पतितं मां विषमे भवाम्‍बुधौ।
कृपया तव पादपंकज स्थितधूलीसदृशं विचिन्‍तय॥
यह संसार समुद्र के समान है। मुझे इसमें तुमने क्‍यों फेंक दिया, हे नाथ ! इसकी मुझे कोई शिकायत नहीं। मैं अपने कर्मों के अधीन होकर ही इसमें गोते लगा रहा हूँ, बार-बार डूबता हूँ और फिर तुम्‍हारी करुणा के सहारे ऊपर तैरने लगता हूँ।
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इस अथाह सागर के सम्‍बन्‍ध में मैं कुछ भी नहीं जानता कि यह कितना गहरा है, किन्‍तु हे मेरे रमण ! मैं इसमें डुबकियाँ मारते-मारते थक गया हूँ। कभी-कभी खारा पानी मुंह में चला जाता है, तो कैसी होने लगती है। कभी कानों में पानी भर जाता है, तो कभी आँखें ही नमकीन जल से चिरचिराने लगती हैं। कभी-कभी नाक में होकर भी जल चला जाता है।
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हे मेरे मनोहर मल्‍लाह ! हे मेरे कोमल प्रकृति केवट ! मुझे अपना नौकर जानकर, सेवक समझकर कहीं बैठने का स्‍थान दो। तुम तो ग्‍वाले के छोकरे हो न, बड़े चपल हो। पूछ सकते हो, ‘इस अथाह जल में मैं बैठने के लिये तुझे स्‍थान कहाँ दूँ। मेरे पास नाव भी तो नहीं जिसमें तुम्‍हें बिठा लूँ।’ तो हे मेरे रसिक शिरोमणि ! मैं चालाकी नहीं करता, तुम्‍हें भुलाता नहीं सुझाता हूँ। तुम्‍हारे पास एक ऐसा स्‍थान है, जो जल में रहने पर भी नहीं डूबता और उसमें तुमने मुझ-जैसे अनेकों डूबते हुओं को आश्रय दे रखा है।
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तुम्‍हारे ये अरुण वर्ण के जो कोमल चरण कमल हैं, ये तो जल में ही रहने के आदी हैं। इन कमलों में सैकड़ों धूलि के कण जल में रहते हुए भी निश्चिन्‍तरूप से बिना डूबे ही बैठे हैं। हे नन्‍दजी के लाड़िले लाल ! उन्‍हीं धूलि कणों में मेरी भी गणना कर लो। मुझे भी उन पावन पद्मों में रेणु बनाकर बिठा लो। वहाँ बैठकर मैं तुम्‍हारी धीरे-धीरे पैर हिलाने की क्रीड़ा के साथ थिरक-थिरककर सुन्‍दर स्‍वर से इन नामों का गायन करता रहूँगा –
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
(क्रमशः)

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