शनिवार, 18 जुलाई 2020

*१७७. श्री चैतन्‍य–शिक्षाष्‍टक*

🌷🙏🇮🇳 #daduji 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 卐 सत्यराम सा 卐 🇮🇳🙏🌷
*दादू वाणी प्रेम की, कमल विकासै होहि ।*
*साधु शब्द माता कहैं, तिन शब्दों मोह्या मोहि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ शब्द का अंग)*
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साभार ~ Krishnakosh, http://hi.krishnakosh.org/
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*श्री श्रीचैतन्य-चरितावली ~ प्रभुदत्त ब्रह्मचारी*
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*१७७. श्री चैतन्‍य–शिक्षाष्‍टक*
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चैतन्‍य-चरितावली रूपी रसभरी धारा ने हमारे और पाठकों के बीच में एक प्रकार का सम्‍बन्‍ध स्‍थापित कर दिया है। चाहे हमारा ‘चैतन्‍य-चरितावली’ के सभी पाठकों से शरीर-सम्‍बन्‍ध न भी हो, किन्‍तु मानसिक सम्‍बन्‍ध तो उसी दिन जुड़ चुका जिस दिन उन्‍होंने अचैतन्‍य जगत को छोड़कर चैतन्‍य-चरित्र की खोज की।
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उन सभी प्रेमी बन्‍धु के श्री चरणों में हृदय से इस हृदय हीन नीरस लेखक की यही प्रार्थना है कि आप लोग कृपा करके अपने प्रेम का एक-एक कण भी इस दीन-हीन कंगाल को प्रदान कर दें तो इसका कल्‍याण हो जाय। कहावत है – ‘बूँद-बूँद से घट भरे, टपकत रीतो होय।’
बस, प्रत्‍येक पाठक हमारे प्रति थोड़ा भी प्रेम प्रदर्शित करने की कृपा करें तो हमारा यह रीता घड़ा परिपूर्ण हो जाय। क्‍या उदार और प्रेमी पाठक इतनी भिक्षा हमें दे सकेंगे?
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यह हम हृदय से कहते हैं, हमें धन की या और किसी सांसारिक उपभोगों की अभी तो इच्‍छा प्रतीत होती नहीं। आगे की वह साँवला जाने। अच्‍छे–अच्‍छों को लाकर फिर उसने इसी मायाजाल में फँसा दिया है, फिर हम-जैसे कीट-पतंगों की तो गणना ही क्‍या ! उसे तो अभी तक देखा ही नहीं। शास्‍त्रों से यह बात सुनी है कि प्रेमी भक्त ही उसके स्‍वरूप हैं, इसीलिये उनके सामने अकिंचन भिखारी की तरह हम पल्‍ला पसारकर भीख माँग रहे हैं।
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हमें यह भी विश्‍वास है कि इतने बड़े दाताओं के दरवाजों से हम निराश होकर न लौटेंगे, अवश्‍य ही हमारी झोली में वे कुछ-न-कुछ तो डालेंगे ही। भीख मांगने वाला कोई गीत गाकर या कुछ कहकर ही दाताओं के चित्‍त को अपनी ओर खींचकर भीख माँगता है। अत: हम भी चैतन्‍योक्त इन आठ श्‍लोकों को ही कहकर पाठकों से भीख माँगते हैं।
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(१)
चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्निनिर्वापणं
श्रेय: कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम्।
आनन्‍दाम्‍बुधिबर्द्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्‍वादनं
सर्वात्‍मस्‍नपनं परं विजयते श्रीकृष्‍णसंकीर्तनम्।।
जो चित्‍तरूपी दर्पण के मैल को मार्जन करने वाला है, जो संसाररूपी महादावाग्नि को शान्‍त करने वाला है, प्राणियों के लिये मंगलदायिनी कैरव चन्द्रिका को विरण करने वाला है, जो विद्यारूपी वधू का जीवन-स्‍वरूप है और आनन्‍दरूपी समुद्र को प्रतिदिन बढ़ाने ही वाला है उस श्रीकृष्‍ण संकीर्तन की जय हो, जय हो !
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
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(२)
नाम्‍नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति-
स्‍तत्रार्पिता नियमित:स्‍मरणे न काल:।
एतादृशी तव कृपा भगवन ममापि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुराग:।।
प्राणनाथ ! तुम्‍हारी कृपा में कुछ कसर नहीं और मेरे दुर्भाग्‍य में कुछ संदेह नहीं। भला, देखो तो सही तुमने ‘नन्‍दनन्‍दन’, ‘व्रजचन्‍द’, ‘मुरलीमनोहर’, ‘राधारमण’– ये कितने सुन्‍दर-सुन्‍दर कानों को प्रिय लगने वाले अपने मनोहारी नाम प्रकट किये हैं, फिर वे नाम रीते ही हों सो बात नहीं, तुमने अपनी सम्‍पूर्ण शक्ति सभी नामों में समानरूप से भर दी है।
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*जिसका भी आश्रय ग्रहण करें, उसी में तुम्‍हारी पूर्ण शक्ति मिल जायगी। सम्‍भव है, वैदिक क्रिया-कलापों की भाँति तुम उनके लेने में कुछ देश, काल और पात्र का नियम रख देते तो इसमें कुछ कठिनता होने का भय भी था, सो तुमने तो इन बातों का कोई भी नियम निर्धारित नहीं किया।*
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*स्‍त्री हो, पुरुष हो, द्विज हो, अन्‍त्‍यज हो, शूद्र हो, अनार्य हो, कोई भी क्‍यों न हो, सभी प्राणी शुचि-अशुचि किसी का भी विचार न करते हुए सभी अवस्‍थाओं में, सभी समयों में सर्वत्र उन सुमधुर नामों का संकीर्तन कर सकते हैं।* हे भगवन ! तुम्‍हारी तो जीवों के ऊपर इतनी भारी कृपा और मेरा ऐसा भी दुर्दैव कि तुम्‍हारे इन सुमधुर नामों में सच्‍चे हृदय से अनुराग ही उत्‍पन्‍न नहीं होता।
श्रीकृष्‍ण ! गोविन्‍द ! हरे ! मुरारे !
हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव !
(क्रमशः)

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