शनिवार, 22 अगस्त 2020

मध्य का अंग ४२/४६

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🌷
भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ १६. मध्य का अंग)
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*स्वर्ग नरक सुख दुख तजे, जीवन मरण नशाइ ।*
*दादू लोभी राम का, को आवै को जाइ ॥४२॥*
राम के दर्शनों के अभिलाषी रामभक्त स्वर्ग-नरक-जन्य सुख दुःखों की तथा जनम-मरण दुःखों को त्याग कर परम प्रेम से भगवान् का ध्यान करते हुए भगवत्स्वरूप को प्राप्त हो गये । क्योंकि बार-बार आने जाने वाले इस संसार में कौन बुद्धिमान् मनुष्य रमण करेगा?
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*॥ मधि निर्पख ॥*
*दादू हिन्दू तुरक न होइबा, साहिब सेती काम ।*
*षट् दर्शन के संग न जाइबा, निर्पख कहबा राम ॥४३॥*
*षट् दर्शन दोन्यों नहीं, निरालंब निज बाट ।*
*दादू एकै आसरे, लंघे औघट घाट ॥४४॥*
*दादू ना हम हिन्दू होहिंगे, ना हम मुसलमान ।*
*षट् दर्शन में हम नहीं, हम राते रहमान ॥४५॥*
*दादू अल्लाह राम का, द्वै पख तैं न्यारा ।*
*रहिता गुण आकार का, सो गुरु हमारा ॥४६॥*
एक समय अकबर बादशाह ने सीकरी नगर में श्रीदादूजी महाराज से पूछा कि आप हिन्दू धर्म को मानते हैं या यवन धर्म को? इस प्रश्न का उन्होंने उत्तर दिया कि-
मैं किसी भी धर्म विशेष को नहीं मानता, क्योंकि जाति आदि धर्मों से भगवान् प्रसन्न नहीं होते । वे सब धर्म जाति आदि कल्पित हैं । षट्दर्शनों के मध्य में मैं किसी भी दर्शन को भगवत् प्राप्ति का साधन नहीं मानता हूँ । मैं तो सम्प्रदाय आदि सब धर्मों को त्यागकर निष्पक्षभाव से भगवान् का सहारा ले रहा हूँ और अन्य भी जो भगवान् के भक्त हुए हैं, उन्होंने भी मतमतान्तर को त्यागकर निष्पक्षभाव से परमात्मा का सहारा लेकर इस संसार में जन्म मरण के भय को पार कर गये । अतः मैं भी मुसलमान, षट्दर्शन आदि सभी भेदभाव को त्यागकर धर्मातीत, निरन्जन, निराकार, निर्गुण परमात्मा को जो गुरुरूप है, भज रहा हूँ । 
गीता में कहा है कि- हे अर्जुन ! तुम सब धर्मों का परित्याग करके केवल मेरी शरण में चला आ । मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूंगा । क्योंकि मेरी शरणागति सब धर्मों से महान् धर्म है । अतः तू चिन्ता मत कर । श्री दादूजी ने किसी धर्म विशेष को न मानकर किसी धर्म का तिरस्कार नहीं किया है अपितु केवल भगवत् शरणागति को धारण करना ही परम कर्तव्य धर्म है, क्योंकि आत्मा को छोड़कर सब अनात्मधर्म हैं । 
(क्रमशः)

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