रविवार, 22 नवंबर 2020

= ४०८ =

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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग ललित २५(गायन समय प्रात: ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४०८ - (मराठी) *अनन्यशरण* । त्रिताल
मेरे गृह आव हो गुरु मेरा,
मैं बालक सेवक तेरा ॥टेक॥
मात पिता तूँ अम्हचा१ स्वामी,
देव हमारे अंतरजामी ॥१॥
अम्हचा सज्जन अम्हचा बँधू,
प्राण हमारे अम्हचा जिन्दू ॥२॥
अम्हचा प्रीतम अम्हचा मेला,
अम्हचा जीवन आप अकेला ॥३॥
अम्हचा साथी संग सनेही,
राम बिना दुख दादू देही ॥४॥
अनन्य शरण दिखा रहे हैं - हे मेरे गुरुदेव राम ! मेरे अन्त:करण रूप घर में पधारिये । मैं आपका ही बालक और सेवक हूं ।
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हे अन्तर्यामी ! हमारे१ तो माता, पिता, स्वामी, देवता, सज्जन, बान्धव, जीवित रखने वाले प्राण, प्रियतम - सम्मेलन, जीवन - सहायक और संग रहने वाले स्नेही, आदि सब कुछ आप अकेले ही हैं ।
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हे राम ! आप के बिना मेरे जीवात्मा को अति दु:ख रहता है ।
(क्रमशः)

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