बुधवार, 23 दिसंबर 2020

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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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साजनियाँ ! नेह न तोरी रे ।
जे हम तोरैं महा अपराधी, 
तो तूँ जोरी रे ॥टेक॥
प्रेम बिना रस फीका लागै, 
मीठा मधुर न होई ।
सकल शिरोमणि सब तैं नीका, 
कड़वा लागै सोई ॥१॥
जब लग प्रीति१ प्रेम रस नाँहीं, 
तृषा बिना जल ऐसा ।
सब तैं सुन्दर एक अमीरस, 
होइ हलाहल जैसा ॥२॥
सुन्दरि सांई खरा पियारा, 
नेह नवा नित होवै ।
दादू मेरा तब मन मानै, 
सेज सदा सुख सोवै ॥३॥
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अखँड स्नेहार्थ विनय कर रहे हैं - हे सज्जन परमेश्वर ! आप हमारे से स्नेह न तोड़ना, यदि हम महा अपराधी होने से तोड़ने लगें तो भी आप उसे जोड़ने की ही कृपा करना ।
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जैसे प्रेम बिना मधुर रस भी मधुर नहीं लगता, फीका लगता है, वैसे ही प्रेम बिना जो सर्व शिरोमणि और सबसे अच्छे प्रभु हैं, वे भी कटु लगते हैं, प्रिय नहीं लगते ।
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जैसे प्यास बिना जल से प्रसन्नता नहीं होती, वैसे ही जब तक प्रेम नहीं होता तब तक रस से प्रसन्नता१ नहीं होती, प्रेम बिना सबसे सुन्दर अमृत - रस भी महा विष जैसा भासता है, वैसे ही प्रेम बिना अद्वैत ब्रह्म भी प्रिय नहीं होता ।
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मुझ सुन्दरी को मेरे स्वामी परमेश्वर अत्यधिक प्रिय हैं और उनमें मेरा स्नेह नित्य नूतन होता जाता है, किन्तु मेरा मन तब सँतोष मानेगा जब वे मेरे प्रभु मेरी हृदय - शय्या पर सदा के लिये सुख - पूर्वक शयन करेंगे ।
(क्रमशः)
 

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