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*सब चतुराई देखिये, जे कुछ कीजे आन ।*
*मन गह राखै एक सौं, दादू साधु सुजान ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ @महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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ज्यों साँभर के सर१ पड्यो, पशू पचन२ ह्वे जाय ।
तैसे रज्जब स्वाँग में, आत्म तत्त्व विलाय ॥८१॥
जैसे साँभर के नमक के सरोवर१ में पड़ने पर पशु गल२ जाते हैं, वैसे ही भेष के आग्रह से आत्म तत्त्व विलीन हो जाता है ।
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दर्शण१ चाहै दरशणी२, पाखंडी पाखंड ।
रज्जब चाहै राम को, सो लिये न प्रपंच मंड३ ॥८२॥
भेषधारी२ भेष१ को चाहता है, पाखंडी पाखंड को चाहता है, किन्तु जो राम को चाहता है, वह ब्रह्माण्ड३ के प्रपंच में लिपायमान नहीं होता ।
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स्वांग१ सनेही दर्शनी२, साँच सनेही साध ।
रज्जब खोट हुँ खर३ हुँ का, अर्थ अगोचर४ लाध५ ॥८३॥
भेषधारी२ तो भेष१ के प्रेमी हैं, और संत सत्य के प्रेमी है इस प्रकार इन्द्रियों का अविषय४ खोटे भेष धारियों और सच्चे३ संतों का लक्षण रूप अर्थ हमें मिल५ गया है ।
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मन हिं जान दे मनिये फेरै, यहु उर बात न आवै मेरै ।
छापे दे अरु राशि लुटावै, सो रज्जब कैसे करि भावै ॥८४॥
जैसे कोई रक्षक धान की राशि पर छापे देता है और घूस खाकर राशि भी लुटाता है, तो वह कैसे अच्छा लगेगा ? वैसे ही माला के मणियें फैरता है और मन को विषयों में भी जाने देता है, यह बात हमारे हृदय में उचित रूप से नहीं आती अर्थात हमें अच्छी नहीं लगती ।
(क्रमशः)
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