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*साहिब जी के नांव में, मति बुधि ज्ञान विचार ।*
*प्रेम प्रीति स्नेह सुख, दादू ज्योति अपार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*तन मन धन अर्पि हरि मिले,*
*जन राघव येते राजॠष ॥*
*उत्तानपाद प्रियव्रत, अंग मुचकंद प्रचेता ।*
*योगेश्वर मिथिलेश, पृथु परीक्षित ऊर्ध्वरेता ॥*
*हरिजश्वा हरिविश्व, रहुगण जनक सुधन्वा ।*
*भागीरथ हरिचंद्र, सगर सत्यव्रत सु मन्वा ॥*
*प्राचीनबर्ही इक्ष्वाकु रघु, रुक्मांगद कुरु गाधि शुचि ।*
*भरत सुरथ सुमती रिभू, अैल अमूरती रै गै रूचि ॥५४॥*
अपने तन, मन और धन को हरि के समर्पण करके इतने राजर्षि हरि को प्राप्त हुये हैं- *{द्वितीय अंश}*
*११.रहुगण-* रहुगण सिन्धु सोवीर देश के राजा थे, एक समय तत्व ज्ञान की प्राप्ति के लिये कपिल मुनि के आश्रम को जा रहे थे । इक्षुमती नदी के तट पर पालकी उठाने वालों में एक कहार की कमी आ गई । वहां महात्मा जड़ भरत को उन्होंने पालकी के जोत लिया । जड़भरत मार्ग में चींटी आदि जीवों को बचाकर चलते थे, इससे पालकी टेढ़ी होती थी । उसका दोषी जड़भरत जी को मानकर राजा ने उन्हें डाँटा, तब जड़भरत जी ने शांतिपूर्ण ज्ञानपूर्ण उत्तर दिया । उसे सुनकर राजा ने समझा ये कोई महात्मा हैं । उतर कर चरणों में पड़ गया तथा क्षमा मांगी । जड़भरत जी ने राजा को अधिकारी जानकर अध्यात्म तत्व का उपदेश दिया । जिससे राजा कृतार्थ होकर अपने पुर को लौट आया था ।
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*१२.जनक-* जनकपुरी के राजाओं की उपाधि जनक थी, सबके नाम अलग अलग होते थे । जैसे करालजनक, सीरध्वजजनक, जनदेवजनक, इनमें किसी को अष्टावक्र ने, किसी को वशिष्ठ व किसी को पंचशिख ने, किसी को याज्ञवल्क्य आदि ने उपदेश दिये हैं । ये सभी प्रायः भक्त राजर्षि हुए हैं ।
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*१३.सुधन्वा-* सुधन्वा चम्पकपुरी के भगवद्भक्त राजा हंसध्वज के चार पुत्रों में से सबसे छोटे पुत्र थे । भगवान् के परम भक्त थे । युधिष्ठिर ने अश्वमेघ यज्ञ किया तब यज्ञ का घोड़ा चम्पकपुरी की सीमा में पहुँचा । पुरोहित ने घोषणा की-“अमुक समय पर जो युद्ध स्थल पर नहीं पहुँचेगा, उसे तप्त तेल के कड़ाह में डाला जायगा ।” सुधन्वा भगवान् के परम भक्त थे । वे युद्ध के लिये तैयार होकर अन्तःपुर में गये थे, वहाँ उनको देर लग गई । समय पर नहीं पहुँच सके । पुरोहितों की आज्ञा से उन्हें तप्त तेल के कड़ाह में डाला गया उनका कुछ न बिगड़ा । पुरोहितों ने परीक्षा के निमित्त कड़ाह में एक नारियल डाला, वह गरम तेल से फटकर उछला और दोनों पुरोहितों के मस्तक पर एक एक टुकड़े से चोटें आई । फिर सुधन्वा पिता को प्रणाम करके युद्ध स्थल में गये, वहां अर्जुन को युद्ध में तृप्त करके अन्त में वीरगति को प्राप्त हुए । उनका मस्तक रथ में बैठे हुए भगवान् कृष्ण के चरणों में गिरा, उससे ज्योति निकल कर भगवान् में मिल गई ।
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*१४.भगीरथ-* राजा अंशुमान के दीलीप, दीलीप के पुत्र भागीरथ हैं । इन्होंने हिमालय पर तपस्या करके शिवजी तथा गंगाजी को प्रसन्न किया था । गंगाजी को लाकर पितरों का उद्धार किया था । कोहल ऋषि को एक लाख सवत्सा गौओं का दान किया था । ये भगवान् के भक्त राजर्षि थे ।
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*१५.हरिचन्द्र-* सती हरिचन्द्र प्रसिद्ध हैं, इनकी कथा मूल मनहर ९० से आगे आयेंगी ।
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*१६.सगर-* सगर को उनकी सौतेली माता ने गर्भ में ही विष दे दिया था, गर(विष) के साथ गर्भ में रामकृपा से जीवित रहे, इसी से उनका नाम सगर प्रसिद्ध हुआ था । ये इक्ष्वाकुवंश के प्रतापी राजा थे । इनके दो रानियां थी । वैदर्भी और शैब्या । वैदर्भी से साठ हजार पुत्र हुए थे, शैब्या से एक असमंजस हुआ था । सगर ने असमंजस को देश निकाला दे दिया था । सगर के अश्वमेघ का घोड़ा इन्द्र ने चुराया और कपिल मुनि के पास बांध दिया था । सगर के साठ हजार पुत्र घोड़ा लाने गये तब कपिल की कोप दृष्टि से जल कर भस्म हो गये थे । असमंजस के पुत्र अंशुमान कपिल जी की स्तुति से प्रसन्न करके घोड़ा लाये थे । सगर ने यज्ञपूर्ण करके अंशुमान को राज्य दे दिया और स्वयं वन में जाकर भगवद् भजन करते हुए परम गति प्राप्त की ।
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*१७.सत्यव्रत-* सत्यव्रत समुद्र तट पर सन्ध्या कर रहे थे । सूर्य भगवान् को अर्घ देते समय विचित्र मत्स्य इनकी अंजली में प्रकट होकर गिरा; रक्षा के लिए क्रमशः कमण्डल, घट, ह्ल्द सर में भी जब नहीं समाये तब समुद्र में पहुँचाया । वहां वे बहुत बढ़ गये । सातवें दिन प्रलय हुआ तब मत्स्य भगवान् की आज्ञा से एक अलौकिक नौका पर सप्तर्षि और औषधियों सहित राजा चढ़े । मत्स्य भगवान् ने उस नौका को अपने श्रृंग में वासुकी नाग से बाँधा और प्रलयकाल के महासागर के जल से साथियों सहित राजा को बचाया था । आप बड़े भक्त राजर्षि हुये हैं ।
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*१८.मन्वा-* मनु तथा मन्वन्तर १४ मनुओं में प्रथम मनु स्वायंभूव हैं । इनको धर्मपत्नी शतरूपा जी हैं । मनुष्य सृष्टि के ये ही आदि हैं अर्थात् इन्हीं से मनुष्य हुये हैं । इन्होंने मनुस्मृति बनाई है । चौदह मनुओं के नाम-१.स्वायंभूव, २.स्वारोचिष, ३.उत्तम, ४.तामस, ५.रैवत, ६.चाक्षुष, ७.वैवस्वत, ८.सावर्णि, ९.दक्षसावर्णि, १०.ब्रह्म सावर्णि, ११.धर्म सावर्णि, १२.रुद्र सावर्णि, १३.देव सावर्णि, १४.इन्द्र सावर्णि । जैसे ७ दिन का सप्ताह, १२ महिनों के वर्ष होता हैं वैसे ही सत्य युग, त्रेता, द्वापर, कलियुग इन चार की एक चौकड़ी(चतुर्युगी) होती है । हजार चतुर्युगी का ब्रह्मा का एक दिन होता है । ब्रह्मा के प्रत्येक दिन में १४ मनु हो जाते हैं । अर्थात् एक २ मनु(१०००+१४) कुछ ऊपर एकहत्तर चतुर्युगों पर्यन्त रहा करते हैं । जब एक मनु की अवधि पूरी हो जाती है तब उनके साथ ही उस समय इन्द्र, सप्तर्षि, मनुपुत्र, भगवदवतार और देवता ये छओं का प्रत्येक समूह एक २ मन्वन्तर कहलाता है । जब चौदह मन्वन्तर हो चुकते हैं अर्थात् चौदहों-१.मनु, २.इन्द्र, ३.सप्तर्षि, ४.मनुपुत्र, ५.भगवदवतार, ६.देवता, की एक एक आवृत्ति हो चुकती हैं तब एक सहस्त्र चौकड़ियाँ व्यतीत हो जाती हैं वा ब्रह्मा का एक दिन पूरा हो जाता है । दिन के समान ही ब्रह्मा की रात्रि होती है । उक्त रात्रि-दिन के सौ वर्ष पूरे हो जाते हैं तब प्रथम ब्रह्मा के स्थान में दूसरे बन जाते हैं ।
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*१९.प्राचीनवर्ही-* प्राचीनवर्ही पूर्व मीमांसा के अनुसार यज्ञादिक कर्म विधिवत् करते थे । इनके कई सहस्त्र पुत्र हुये थे किन्तु देवर्षि नारदजी ने भक्ति का उपदेश करके उनको विरक्त बना दिया था । राजा को भी कहा-“आँखें मूंदकर देख” उसने और यज्ञ कराने वालों ने देखा तो जिनको उन्होंने यज्ञ में बलि दिया था, वे बहुत से पशु क्रोधित होकर खड़े हैं और इनसे अपना बदला लेने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । यह देखकर राजा के रोम के रोम खड़े हो गये, वे समझ गये कि हिंसा महा पाप है । फिर राजा तथा यज्ञ करने वाले ब्राह्मण भी भगवद् भजन करके परमगति को प्राप्त हुये ।
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*२०.इक्ष्वाकु-* सूर्य के पुत्र वैवस्वत मनु, वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु हुये हैं । राजा इक्ष्वाकु की राजधानी अयोध्या थी । आप बड़े प्रतापी भगवद् भक्त राजर्षि हुये हैं ।
(क्रमशः)
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