बुधवार, 6 जनवरी 2021

*११. भगति संजीवनी कौ अंग ~ ६९/७२*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*११. भगति संजीवनी कौ अंग ~ ६९/७२*
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कहि जगजीवन निवरता२, देख दसहरा३ पूज ।
सावधान सुमिरन करै, हरि स्यूं करै न दूज४ ॥६९॥
{२. निवरता=नवरात्र(=अश्विन शुक्ल के प्रथम नौ दिन)}
(३. दशहरा=विजया दशमी का त्यौहार) (४. दूज=द्वैतभाव)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जन नवरात्रि करके दशहरा कर उसे पूर्ण करते हैं और जो जन सावचेत हो स्मरण करते हैं उनके लिये प्रभु अन्य नहीं होते हैं ।
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कहि जगजीवन दसहरा, एकादशी व्रत राखि ।
तिथी समान नहीं द्वादसी, चरण कंवल रस चाखि ॥७०॥ 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि दशहरा एकादशी सब पूजा व्रत कर द्वादशी तिथि सा कोइ महात्म ही नहीं है । पर इन सबसे परे है जीव अपना ध्यान प्रभु चरण कमलों में लगा । वह ही सर्वोत्तम है ।
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कहि जगजीवन रांमजी, मल मूतर की देह ।
तेज पुंज मंहि राखि हरि, सतगुरु करौ बिदेह५ ॥७१॥
(५. बिदेह=जीवन्मुक्त अवस्था)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि यह देह मल मूत्र से संलग्न है । अतः हे गुरु महाराज आप इस देहभाव से परे करने की कृपा करें तब ही यह प्रभु के तेज पुंज में रहने योग्य हो ।
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असत तुचा६ घट घाट हरि, पलटि तेज का होइ ।
कहि जगजीवन रांमजी, तो सुख उपजै मोइ७ ॥७२॥
(६. असत तुचा=अस्थि एवं त्वचा) (७. मोइ=मुझको)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अस्थि त्वचा तक जो मन है वह पलट कर प्रभु का हो तब ही मुझे सुख प्राप्त हो ।
(क्रमशः)

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