शनिवार, 1 नवंबर 2014

= ३७ =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन* द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
३७ एकताल ~
मन मूरखा, तैं क्या किया ? 
कुछ पीव कारण वैराग न लिया,
रे तैं जप तप साधी क्या दिया ॥टेक॥
रे तैं करवत काशी कद सह्या, 
रे तूँ गंगा मांहीं ना बह्या,
रे तैं विरहनी ज्यों दुख ना सह्या ॥१॥
रे तैं पालै पर्वत ना गल्या, 
रे तैं आप ही आपा ना दह्या,
रे तैं पीव पुकारी कद कह्या ॥२॥
होइ प्यासे हरि जल ना पिया, 
रे तूँ बज्र न फाटो रे हिया ।
धिक् जीवन दादू ये जिया ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरु अपने मन को उपलक्षण करके उपदेश करते हैं कि हे मन मूर्ख ! तूँने परमेश्‍वर की प्राप्ति के लिये विषयों से कुछ भी वैराग्य धारण नहीं किया ? हे मन ! तूँने जप - तप करके परमेश्‍वर को क्या दिया ? 
.
और तूँ परमेश्‍वर की प्राप्ति के लिये, काशी - करौत जैसा दुःख कब सहा है ? परमेश्‍वर की प्राप्ति के लिये कभी तैने गंगा स्नान किया है ? हे मन, तूँ ने विरहनी की तरह प्रभु - वियोग का दुःख कभी सहा है ? 
.
रे तूँ हिमालय में जाकर, प्रभु प्राप्ति के लिये कभी गला है । हे मन मूर्ख ! तूँने अपने अहंकार को कभी विरह रूप अग्नि में जलाया है ? हे मन ! तूँने कभी हृदय की पुकार से पीव का स्मरण किया है ? 
.
मूर्ख मन ! तूँ ने कभी अत्यन्त हरि दर्शनों की प्यास से ! राम - नाम जल नहीं पीया । हे हमारे हृदय ! तुम बज्र के समान कठोर हो जो हरि के दर्शन न होने पर भी दुःख से फटते नहीं हो । ऐसे जीव के जीने में धिक्कार है, जो प्रभु विमुख होकर, जीता है ।
.
दृष्टान्त ~ तुलसीदास जी संत होने के बाद घूमते - घूमते अपने गाँव में आये । गाँव वाले उनका सत्संग सुनने लगे और क्रम - क्रम से सेवा भी करने लगे । इनकी स्त्री भी सत्संग में आई और बोली ~ कि कल भोजन का सामान मैं लाऊँगी । जब दूसरे दिन वह रसोई का सामान सब लाई, परन्तु हल्दी नहीं लाई । तुलसीदास जी ने सब सामान देखा और बोले ~ हल्दी तो नहीं लाई । वह बोली - महाराज ! अभी लाती हूँ । तुलसीदास जी बोले ~ नहीं, अब मत लाओ, हमारे खड़िया में हल्दी है, उसको काम में ले लेंगे । तब वह बोली -
हींग हलद खड़िया बसै, तो त्रिया क्यूँ त्यागि ।
कै मोकों खड़िये करो, कै ल्यो तीव्र वैराग ॥३७॥
यह सुनकर तुलसीदास जी के अन्दर के चक्षु खुल गये और झोली झन्डे भी वहीं डाल दिये । फिर उनका मन महान् वीतरागी होकर प्रभु भजन में सलग्न हो गये ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें