शनिवार, 16 जनवरी 2021

= *तीर्थ तिरस्कार का अंग १३४ (१/४)* =


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*दादू पाणी धोवैं बावरे, मन का मैल न जाइ ।*
*मन निर्मल तब होइगा, जब हरि के गुण गाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*तीर्थ तिरस्कार का अंग १३४* 
इस अंग में भजनादि साधन के आगे तीर्थों की विशेषता कुछ नहीं है यह कह रहे हैं ~
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अज्ञान रूप अड़सठ फिर हिं, धोखे१ धोवैं देह ।
रज्जब मैले नाम बिन, यहु साँची सुणि लेह ॥१॥
अज्ञान रूप अर्थात अज्ञानी प्राणी अड़सठ तीर्थो में भ्रमण करते हैं, हम निर्मल हो जायेंगे इस भूल१ से उनके जल से शरीर को धोते हैं, किंतु सच्ची बात तो यह सुन लो, प्रभु के नाम चिन्तन बिना मैले ही रहोगे ।
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तन धोया फिर तीरथों में, मैल रह्या मन मांहि ।
रज्जब पातक प्राण में, क्यों उर के अघ जांहिं ॥२॥
तीर्थो में भ्रमण करके शरीर धोते रहे, पाप मन में रह गया, प्राणी में अधर्म प्रवृत्ति है और उसके हृदय में जो पाप है वह तीर्थ स्नान से कैसे जा सकता है ?
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जल अचवै१ आठों पहर, अड़सठ तीर्थ न्हाहिं२ ।
रज्जब रज३ नहिं ऊतरै, मैली मनशा४ माँहिं ॥३॥
अड़सठ तीर्थो में स्नान२ करते हैं, आठों पहर तीर्थ जल पान१ करते हैं, फिर भी मन का रजो गुण३ नहीं उतरता भीतर बुद्धि४ मलीन ही रहती है ।
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अड़सठ न्हाई तुम्बिका, मीठी भई न माँहिं ।
जन रज्जब सो साखि१ सुणि, कहु२ किहिं३ तीरथ न्हांहि ॥४॥
कड़वी तुम्बी अड़सठ तीर्थो में स्नान कर आई किन्तु भीतर से मीठी नहीं हुई अर्थात कटु स्वभाव की जीवात्मा सब तीर्थो में स्नान करके भी पूर्ववत् ही रहती है, उसकी वह साक्षी१ रूप कथा सुनकर कहो२, किस३ तीर्थ में स्नान करें ?
(क्रमशः)

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