शनिवार, 16 जनवरी 2021

*समाधि में । ईश्वरदर्शन और परमहंस-अवस्था*



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*दादू जिन प्राण पिंड हमको दिया,*
*अंतरि सेवे ताहि ।*
*जे आवे औसाण सिर, सोई नाम संबाहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पीव पहचान का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद ६८*
*दक्षिणेश्वर में गुरुरुपी श्रीरामकृष्ण*
(१)
*समाधि में । ईश्वरदर्शन और परमहंस-अवस्था*
श्रीरामकृष्ण अपने कमरे के दक्षिण-पूर्ववाले बरामदे में राखाल, लाटू, मणि, हरीश आदि भक्तों के साथ बैठे हुए हैं । दिन के नौ बजे का समय होगा । रविवार, २३ दिसम्बर १८८३ । अगहन की कृष्णा नवमी है ।
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मणि को गुरुदेव के यहाँ रहते आज दस दिन पूरे हो जाएंगे ।
श्री मनोमोहन कोन्नगर से आज सुबह आए हैं । श्रीरामकृष्ण के दर्शन और कुछ विश्राम करके आप कलकत्ता जाएंगे । हाजरा भी श्रीरामकृष्ण के पास बैठे हैं । नीलकण्ठ के देश के एक वैष्णव आज श्रीरामकृष्ण को गाना सुना रहे हैं । वैष्णव ने पहले नीलकण्ठ का गाना गाया –
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(भावार्थ) – “श्रीगौरांग की सुन्दर देह तप्त-कांचन के समान है । वे नव-नटवर ही हो रहे हैं । परन्तु वे इस बार दूसरे ही स्वरूप से, अपने पहले के चिन्हों को छिपाकर नदिया में अवतीर्ण हुए हैं । कलिकाल का घोर अन्धकार दूर करने के लिए तथा उन्नत और उज्जवल प्रेमरस प्रकट करने के लिए तुम इस बार श्रीकृष्णावतार की नीली देह को महाभाव-स्वरूपिणी श्रीराधा की तप्त-कांचन जैसी उज्जवल देह से ढककर आए हो ।
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तुम महाभाव में समारूढ़ हो, सात्त्विकादिक तुममें लीन हो जाते हैं । उस भावास्वाद के लिए तुम जंगलों में रोते फिरते हो । इससे प्रेम की बाढ़ हो आती है । तुम नवीन संन्यासी हो, अच्छे तीर्थों की खोज में रहते ही, कभी तुम नीलाचल और कभी वाराणसी जाते हो, अयाचकओं को भी तुम प्रेम का दान करते हो, तुम्हारे इस कार्य में जातिभेद नहीं है ।”
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एक दूसरा गाना उन्होंने मानसपूजा के सम्बन्ध में गाया ।
श्रीरामकृष्ण (हाजरा के प्रति) – यह गाना कैसा कैसा लगा ।
हाजरा – यह साधक कान्हाई है, - ज्ञानदीपक, ज्ञानप्रतिमा !
श्रीरामकृष्ण – मुझे तो कैसा कैसा लगा !
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“पहले के गाने कैसे ठीक होते थे ! पंचवटी में नागा के पास मैंने एक गाना गाया था – ‘जीवनसंग्राम के लिए तू तैयार हो जा, लड़ाई का सामान लेकर काल तेरे घर में प्रवेश कर रहा है ।’ एक और गाना – ‘ऐ श्यामा, दोष किसी का नहीं है, मैं अपने ही हाथों द्वारा खोदे हुए गढ़े के पानी में डूबता हूँ ।’
“नागा इतना ज्ञानी था, परन्तु इनका अर्थ बिना समझे ही रोने लगा था ।
“इन सब गानों में कैसी यथार्थ बात हैं – नरकान्तकारी श्रीकान्त की चिन्ता करो, फिर तुम्हें भयंकर काल का भी भय न रह जाएगा ।’
(क्रमशः)

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