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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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(“सप्तमोल्लास” ४६/४८)
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*हुक्म हमारो एसे मानै,*
*ज्यूं पतिब्रता पति को जानै ।*
*हुक्म तुम्हारो तब पतियावै,*
*वचन कहत सारंग जो आवें ॥४६॥*
हमारी आज्ञा तो प्रजा ऐसे मानती है जैसे पतिव्रता पति की आज्ञा मानती है । राजा के उक्त वचन सुनकर ॠषि ने कहा तुम्हारी आज्ञा मानने की बात पर हम तब विश्वास करे यदि तुम्हारी आज्ञा होते ही ये हिरणमृग तुम्हारे पास आ जायें ॥४६॥
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*कोई समझे हुकम हमारा,*
*नहीं सुधी ये पसूं बिचारा ।*
*हुकम होई तो सब को मानें,*
*कहा हुकम जो पसू न जानै ॥४७॥*
राजा ने कहा- हमारी आज्ञा को कोई समझने वाले प्राणी ही मानकर आ जाते हैं, ये तो बेचारे पशु हैं इनको तो आज्ञा समझने की सुधी नहीं है । ॠषि ने कहा राजा की आज्ञा होती है उसको तो सब ही मानते हैं वह राजाज्ञा नहीं है जिसको पशु नहीं समझ सकें ॥४७॥
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*ॠषि के बुलाते ही सब पशु आ गये*
*ऐसौ हुकम होइ तुम मांही,*
*तुमहीं बुलाई ल्याई क्यूं नांही ।*
*हरि आज्ञा ॠषि आज्ञा कीन्ही,*
*मंडली आइ परिक्रमा दीन्ही ॥४८॥*
राजा ने कहा ऐसी आज्ञा तुम्हारी है तो इनको तुम ही क्यो नहीं बुला लेते । तब हरि आज्ञा से ॠषि ने आज्ञा दी कि सब मृग मेरे पास आ जाये । इतना कहते ही सब मृग मंडली आ गई और ॠषि की परिक्रमा की फिर सब सामने खड़े होकर मस्तक नवाते हुये एक टक दर्शन करने लगे ॥४८॥
(क्रमशः)

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