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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
(#श्रीदादूवाणी ~ काल का अंग २५ - ७३/७७)
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*पंच तत्त्व का पूतला, यहु पिंड सँवारा ।*
*मंदिर माटी मांस का, बिनशत नहिं बारा ॥७३॥*
यह शरीर पञ्चभूतों से बना होने से मृन्मय और क्षणभंगुर है । इस मिथ्या शरीर के लिये जीव कितना अभिमान करता है और यह नहीं समझता कि मिट्टी मांस का शरीर क्षण भर में ही नष्ट हो जायगा । यह जीव के अज्ञान की पराकाष्ठा है । जो भजन के लिये मिला था उससे भजन न कर के अहंकार को करता है ।
लिखा है कि- यह शरीर तथा इन्द्रियाँ अपने क्लेशों को मिटाने के लिये भगवान् ने उसे प्रदान की है लेकिन जीव इन्हीं शरीर इन्द्रियों से अपना ही अनर्थ करने में लगा हुआ है तो फिर नियन्ता परमात्मा का क्या दोष है । जैसे कोई गुरु शत्रुओं के विनाश के लिये शस्त्र देता है । परन्तु वह उस शस्त्र से अपने शरीर तथा पुत्र को मार डालता है तो गुरु का क्या दोष है । ऐसे ही जीव की यह अज्ञता है कि ईश्वर का भजन न करके इस शरीर से अभिमान करता है ।
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*हाड़ चाम का पिंजरा, बिच बोलणहारा ।*
*दादू तामें पैस कर, बहुत किया पसारा ॥७४॥*
हाड़ चाम से जो बना हुआ यह शरीर है उसमें जीव रहकर बोलने आदि का व्यवहार करते हुए बहुत प्रपञ्च फैला लिया और व्यर्थ में ही अभिमान करता है कि यह मेरा मेरा है ।
विवेकचूडामणि में लिखा है कि- देहाभिमानी की मुक्ति नहीं होती और मुक्त पुरुष के देहाभिमान नहीं होता । जैसे सोता हुआ जाग नहीं सकता और जागता हुआ सो नहीं सकता । क्योंकि दोनों व्यवहार भिन्न-भिन्न गुणों के आश्रित हैं ।
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*बहुत पसारा कर गया, कुछ हाथ न आया ।*
*दादू हरि की भक्ति बिन, प्राणी पछताया ॥७५॥*
इस संसार में जीव ने बहुत फैलाव फैला लिया परन्तु कुछ हाथ पल्ले नहीं पड़ा और भक्ति के न करने से अन्त में पछताना ही पड़ता है । लिखा है कि- यह शरीर रज वीर्य की ही परिणति है । मृत्यु तथा शौच का स्थान हैं । रोग का तो यह मन्दिर ही है । फिर भी अज्ञानी अज्ञान के कारण विवेक विचार नहीं करता किन्तु अज्ञान समुद्र में डूबा हुआ शरीर को सजाकर स्त्री पुत्र क्षेत्र आदि की इच्छा करता है । अन्त में हरि के भजन बिना पछताना पडेगा ।
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माणस जल का बुदबुदा, पानी का पोटा ।
दादू काया कोट में, मैं वासी मोटा ॥७६॥
यह शरीर रज वीर्य से बना हुआ हैं और बुदबुदे की तरह क्षणभंगुर है । गीले वस्त्र की तरह इससे मल मूत्र झरते रहते हैं । इस शरीर में रहने वाला जीव इसमें यह मेरा है, ऐसा अहंकार करता है और अपने को महान् समझता है और हरि को नहीं भजता यह उसकी बडी भारी अज्ञता है ।
लिखा है कि- यौवन-रुप जीवन, द्रव्य, संग्रह, आरोग्यता, प्रियसंवास, यह सब अनित्य हैं । इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य इनकी लिप्सा नहीं करता ।
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बाहर गढ निर्भय करै, जीबे के तांहीं ।
दादू मांहीं काल है, सो जाणै नांहीं ॥७७॥
जीव अपनी रक्षा के लिये बाहर बड़े-बड़े मजबूत गढ़ बनाता है । परन्तु मृत्यु तो शरीर के भीतर ही बसी हुई हैं तो कहो कि बाहर गढ़ भवन आदि के बनाने में जीवन कैसे सुरक्षित रह सकता है । इसलिये हरि ही सर्वत्र रक्षक है ऐसा मान कर उसको भजो ।
महाभारत में- बैठते, सोते, चलते, मृत्यु प्राणी को खोजती रहती है । अतः अकस्मात् आकर मनुष्य को नष्ट कर देती है । अतः जीवन में मनुष्य को सुख नहीं मिल सकता है ।
(क्रमशः)

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