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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ सजीवन का अंग २६ - २२/२५)
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*दादू तज संसार सब, रहे निराला होइ ।*
*अविनाशी के आसरे, काल न लागे कोइ ॥२२॥*
जो भगवान् के बल पर संसार की आसक्ति गुण धर्म तथा विकारों को त्याग कर परमेश्वर को भजता है । वह काल से मुक्त हो जाता है ।
लिखा है कि- यह काल नदी का श्रोत दिन रात रूपी किनारों को नष्ट करता हुआ हमारे पास ही अनवरत बह रहा है । इस काल नदी के वेग में पडने वाले के लिये कोई अवलम्बन भी नहीं, जिसको पकड कर बाहर निकल जाय । न लौट कर वापस आ सकता है । फिर भी महापुरुषों को क्यों व्यामोह है कि जिससे वे मदाविष्ट से रहते हैं ।
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*जागहु लागहु राम सौं, रैन बिहानी जाइ ।*
*सुमिर सनेही आपणा, दादू काल न खाइ ॥२३॥*
अज्ञान निद्रा से जल्दी जाग कर भगवान् के भजन में लग जावो । क्योंकि आयु रूपी रात्रि समाप्त हो गई है । मृत्यु का दिन भी नजदीक है । वह परमात्मा तुम्हारा मित्र है । अतः उसको याद करो । अन्यथा काल के मुख में अवश्य गिरोगे ।
लिखा है कि- मनुष्य को सौ वर्ष की आयु नपी तुली मिली है । उसमें आधी तो रात में सोकर खो देता है । कुछ बाल्यकाल के खेलकूद में, कुछ बुढापा से चली जाती हैं । कुछ व्यापार कार्य में, कुछ आधि व्याधि रोगों के कष्टों को भोगने में, व्यतीत हो जाती है । अतः इस संसार में प्राणियों को सुख कहां है । जल्दी ही भगवान् के भजन में लग जाना चाहिये । दादू जागहु लागहु राम सौं, छाड़हु विषय विकार ।
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*दादू जागहु लागहु राम सौं, छाड़हु विषय विकार ।*
*जीवहु पीवहु राम रस, आतम साधन सार ॥२४॥*
जागो और राम के भजन में लगो । विषय विकारों को छोड़ो और जीवनपर्यन्त भजन में ही लगे रहो । यह ही अपने आत्मा के उद्धार का श्रेष्ठ मार्ग है ।
सुभाषित में लिखा है कि- पर्वतों की कन्दराओं में निवास करने वाले मुनिवृन्द उस परमात्मा की ज्योति का ध्यान कर रहे हैं । जिनके नेत्रों से आनन्दाश्रुओं की झडी लग रही है और निशंक जिनकी गोदी में बैठे हुए पक्षी उन आसुंओं को पीकर धन्य हो रहे हैं । हम तो मनोरथों से रचित प्रासाद बावडी आदि पर कानन क्रीडा करते हुए अपनी आयु को व्यर्थ ही खो रहे हैं ।
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*॥ सुमिरण नाम निःसंशय ॥*
*मरै तो पावै पीव को, जीवत बंचै काल ।*
*दादू निर्भय नाम ले, दोनों हाथ दयाल ॥२५॥*
के कारण काल से मुक्त हो जाता है और भगवत् स्वरूप से आनन्द को प्राप्त करता है । अतः प्रभु भजन में दोनों तरफ से लाभ ही लाभ हैं । इसलिये साधक को निर्भय होकर परमात्मा को भजना चाहिये ।
गीता में कहा है कि- हे अर्जुन ! योगभ्रष्ट पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में । क्योंकि भगवत्प्राप्ति के लिये कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति(कीट पशुओं) में जन्म को प्राप्त नहीं होता ।
(क्रमशः)

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