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*दादू मन हंसा मोती चुणै, कंकर दिया डार ।*
*सतगुरु कह समझाइया, पाया भेद विचार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सारग्राही का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*साकार-निराकार – नाममाहात्म्य*
श्रीरामकृष्ण – अच्छा, तुम्हें साकार ज्यादा पसन्द है या निराकार ? बात यह है कि जो निराकार है, वही साकार भी है । भक्त की आँखों को वे साकार रूप से दर्शन देते हैं । जैसे अनन्त जलराशि, महासमुद्र, जिसका न ओर है न छोर; उसी जल में कहीं कहीं बर्फ जम गयी है; ज्यादा ठण्डक पहुँचने पर पानी जमकर बर्फ हो जाता है । उसी तरह भक्ति-हिम द्वारा साकार रूप के दर्शन होते हैं ।
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फिर जिस तरह सूर्योदय होने पर बर्फ गल जाती है – ज्यों का त्यों पानी हो जाता है, उसी तरह ज्ञानमार्ग या विचार-मार्ग से होकर जाने पर साकार रूप के दर्शन नहीं होते, फिर तो सब निराकार ही निराकार दीख पड़ता है । ज्ञान-सूर्योदय होने पर साकार बर्फ गल जाती है ।
“परन्तु देखो, जिसकी निराकार सत्ता है, उसी की साकार भी है ।”
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शाम होने को है । श्रीरामकृष्ण उठे । अब दक्षिणेश्वर को लौटनेवाले हैं । बैठकखाने के दक्षिण ओर जो बरामदा है, उसी पर खड़े होकर ईशान से बातचीत कर रहे हैं । वहीँ कोई कह रहे हैं, “यह तो मैं नहीं देखता कि ईश्वर का नाम लेने से प्रत्येक समय फल होता है ।”
ईशान ने कहा – “यह क्या ? बट का बीज कितना छोटा होता है, परन्तु उसके भीतर कितना बड़ा पेड़ छिपा रहता है पर वह पेड़ देर से दिखायी देता है ।
श्रीरामकृष्ण - हाँ हाँ, फल देर से होता है ।
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ईशान का मकान उनके ससुर स्वर्गीय श्री क्षेत्रनाथ चटर्जी के मकान के पूर्व ओर है । दोनों मकानों में आने-जाने का रास्ता है । श्रीरामकृष्ण चटर्जी महाशय के मकान के फाटक के पास आकर खड़े हुए । ईशान अपने बन्धु-बान्धवों को साथ लेकर श्रीरामकृष्ण को गाड़ी पर चढ़ाने के लिए आए हैं ।
श्रीरामकृष्ण ईशान से कह रहे हैं, “तुम संसार में ठीक ‘पाँकाल’ मछली की तरह हो । वह रहती तो है तालाब के बीच में, पर उसकी देह में कीच छू नहीं जाती ।
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“माया के इस संसार में विद्या और अविद्या दोनों ही हैं । परमहंस वह है, जो हंस की तरह दूध और पानी के एक साथ रहने पर भी पानी छोड़कर दूध निकाल लेता है; चींटी की तरह बालू और चीनी के मिले रहने पर भी बालू में से चीनी निकाल ले सकता है ।”
(क्रमशः)

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