🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏🇮🇳 *卐सत्यराम सा卐* 🇮🇳🙏
🌷🙏🇮🇳 *#भक्तमाल* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*भक्ति वाहली खरी आप अविचल हरि,*
*निर्मलो नाउं रस पान भावे ।*
*सिद्धि नें रिद्धि नें राज रूड़ो नहीं,*
*देव पद माहरे काज न आवे ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. १७८)*
=================
*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
.
*सर्वस्व दाता भक्त*
*जन राघव राम अरीझ हैं,*
*परि रीझत है सर्वस्व दिये ॥*
*उच्छवृत्ति जु शिवि रु,*
*सुदर्शन हरिचंद सत गहि ।*
*सारसेठ बलत्री,*
*ईषन जित रंतिदेव लहि ॥*
*कर्ण बलि मोह-मरद,*
*मोरध्वज एदवेद बन ।*
*पर्वत कुंडलधृत,*
*बारमुखी च्यार मुक्त भन ॥*
*व्याध कपोत कपोती कपिला,*
*जलतटांग उपकार जल ।*
*तुलाधार इक सुता साह की,*
*भोज विक्रमाजीत वीरबल ॥*
*ये बड़सती सताई सौं,*
*जप उधरे उत्तम कृत किये ।*
*जन राघव राम अरीझ है,*
*परि रीझत है सर्वस्व दिये ॥९१॥*
यद्यपि रमता राम किसी से प्रसन्न वा रुष्ट नहीं होते किन्तु सर्वस्व देने वाले भक्तों पर प्रसन्न हो ही जाते हैं । सर्वस्व देने पर जिन भक्तों पर प्रभु प्रसन्न हुए, उनका निर्देश कर रहे हैं-
.
*१.उच्छ वृत्ति-* गंगातट के महापद्म नगर के धर्मारण्य ब्राह्मण ने अतिथि को कल्याण का साधन पूछा । उसने कहा-नैमिषारण्य में गोमती तट पर नागपुर में पद्मनाभनाग रहते हैं, वे तुम्हें परम धर्म का उपदेश करेंगे । धर्मारण्य नागराज के गये । नागराज सूर्य का रथ खेंचने गये थे ।
ये गोमती तट पर ठहर गये । नागराज आए तब उनकी पत्नी ने उनको धर्मारण्य के पास भेजा । धर्मारण्य ने पूछा-आपने सूर्य का रथ खेंचने समय कोई आश्चर्य देखा हो तो कहो? वे बोले ‘एक दिन दूसरा सूर्य-सा दिखाई पड़ा । सूर्य ने उसका सत्कार किया । फिर वह सूर्य में ही मिल गया । हम लोगों ने सूर्य को पूछा ये कौन थे? सूर्य ने कहा-ये उच्छवृत्ति का पालन करने वाले सिद्ध मुनि थे । खेत से दाने चुनकर उन से ही अपना निर्वाह करते थे । ये उच्छव्रत और तपस्या से सबसे उत्तम लोक को प्राप्त हुए हैं । यह सुनकर धर्मारण्य तृप्त हो गये । उच्छव्रत को ही उन्होंने परम धर्म मानकर नागराज से विदा हो च्यवन ऋषि से उच्छव्रत की दीक्षा लेकर उसके पालन द्वारा कृतार्थ हो गये । यह कथा महाभारत शांति पर्व अध्याय ३४५ से आरंभ होकर ३६२ अध्याय तक विस्तार से है ।
.
*२.शिवि-* राजा ने अपना शरीर भी कबूतर की रक्षा के लिये तुला पर चढ़ा दिया था, तब देवता तथा प्रभु सभी उन पर प्रसन्न हो गये थे । शिवि की कथा छप्पय ५४ की टीका में आ गई है ।
.
*३.सुदर्शन-* अग्निदेव के पुत्र थे, इनकी माता इक्ष्वाकु वंशी दुर्योधन की पुत्री सुदर्शना थी । सुदर्शना नील(दुर्योधन) द्वारा नर्मदा नदी के गर्भ से उत्पन्न हुई थी । नील(दुर्योधन) माहिस्मति के नरेश थे । सुदर्शना प्रतिदिन पिता के अग्नि होत्र गृह में अग्नि को प्रज्वलित करने जाती थी । इसके ऊपर अग्निदेव आसक्त हो गये थे । इससे पिता ने अग्निदेव की सेवा में समर्पण कर दिया था ।
अग्नि द्वारा इसके गर्भ से सुदर्शन का जन्म हुआ था । महाराज ओधवान् की पुत्री ओधवती के साथ सुदर्शन का विवाह हुआ था । अतिथि सत्कार द्वारा मृत्यु आदि पर विजय पाने के लिये सुदर्शन ओधवती के साथ वन में चले गये थे । अतिथियों को अपना सर्वस्व देकर हम सदेह स्वर्ग में जायेंगे यह इनका दृढ़ निश्चय था ।
इनको मारने के लिये मृत्यु लोह दंड लिये इनके पीछे पीछे फिरता था किन्तु इनकी प्रतिज्ञा में कोई भी प्रमाद न होने से मार ही नहीं सकता था । अन्त में यमराज एक अतिथि के भेष में ओधवती के पास आये, जब सुदर्शन फल मूलादि लाने गये थे । पति की आज्ञा थी-हमारे यहां अतिथि के लिये अदेय कुछ नहीं होना चाहिये ।
ओधवती ने अतिथि का सत्कार किया । अतिथि ने शरीर समर्पण की याचना की । यह सुनकर पतिव्रता धर्म संकट में पड़ गई । फिर पति आज्ञा का ध्यान आने से स्वीकार किया । एकान्त कुटीर में जाते ही सुदर्शन आ गये । पत्नी को आवाज दी । वह लज्जा के कारण नहीं बोल सकी । अतिथि धर्मराज ने कहा-यह मेरी सेवा में है ।
सुदर्शन ने कहा-बहुत अच्छा । तब धर्म प्रकट हो गये और बोले-तुम्हारी धर्मपत्नी पतिव्रता है । इसका धर्म नष्ट करने की शक्ति किस में है । मैं तुम्हारी परीक्षा लेने आया था । तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हो गये हो, अब सदेह स्वर्ग में जाओ । फिर वे सदेह स्वर्ग में गये हैं । सर्वस्व देने पर देवता तथा प्रभु भी इन पर प्रसन्न हुए थे, यह कथा महाभारत में विस्तार से है ।
.
*४.हरिचंद-सती* हरिश्चन्द्र ने सत ग्रहण किया सो अति प्रसिद्ध हैं, इनने अपना सर्वस्व दिया था और स्त्री पुत्र के सहित काशी में बिक गये थे । इससे इन पर देवताओं के सहित प्रभु प्रसन्न हुये थे । इनकी कथा मूल मनहर ९० से आगे हैं ।
.
*५.सारसेठ सदाव्रती* की कथा पद्य टीका पद्य ४५५ में आगे आयेगी ।
*बलत्री*
बलत्री सदाव्रती सेठ की धर्मपत्नी ही हो सकती है । क्योंकि बलत्री शब्द का शब्दार्थ उसमें घटित होता है । तीन बल वाली का बलत्री नाम होता है । सो उसमें तीन बल थे-१.पतिव्रत बल २.सहनशक्ति बल ३.हरि भक्ति बल । तीनों बल उसमें थे ।
वह उच्च कोटि की पतिव्रता थी और सहन शक्ति रूप बल तो उसमें इतना महान् था कि अपने पुत्र को मारने वाले साधु का भी विवाह अपनी पुत्री के साथ करने का प्रस्ताव उसने रक्खा था और कर ही दिया था । विवाह के बाद भी घर पर ही रक्खा था, सहनशक्ति की तो हद ही कर दी थी । उसके हरि भक्ति रूप बल से तो स्वयं सदाव्रती सेठ भी अति प्रभावित हुये थे । इसकी पूरी कथा सदाव्रती सेठ की कथा के साथ ही आगे पद्य टीका पद्य ४५५-५९ में आयेगी ।
.
*६.इच्छाओं को जीतने वाले *रन्तिदेवजी* ने अठतालीस दिन उपवास होने पर प्राप्त अन्न जलादि सर्वस्व अतिथि रूप भगवान् को दिया था । रन्तिदेवजी की कथा मूल छप्पय ५४ की टीका में देखो ।
.
*७.कर्ण-* सूर्य के अंश से कवच कुण्डल धारण किये हुये कुन्ती के गर्भ से जन्मे थे । ये गंगा में बहते हुये अधिरथ को मिले थे । अधिरथ और उनकी धर्मपत्नी राधा ने इनको अपना पुत्र मान लिया था । पहले इनका नाम–‘वासुषेण’ था किन्तु जब इनने अपने कवच कुण्डलों को शरीर से उधेड़कर इन्द्र को दे दिया था, तब से वैकर्तन हो गया था । इनके यहां ब्रह्मणों के लिये कुछ भी अदेय न था । भगवान ने वृद्ध ब्राह्मण का भेष बनाकर, रणभूमि में मरते समय कर्ण से दाँतों में लगा हुआ सोना माँगा था । तब भी इनने अपने दाँत तोड़ कर दे दिया था । आगे ८७ नम्बर के छंद मनहर में भी इनका वर्णन आयेगा ।
.
*८.बलि-* ने गुरु शुक्राचार्य के ना करने पर भी वामन भगवान् को अपना सर्वस्व दे दिया था । यह प्रसिद्ध है । बलि की कथा छप्पय ८४ की टीका में आ गई है, वहाँ देखो और ८८-८९ मूल पद्यों में आगे भी आयेगी ।
.
*९.मोहमरद-* की कथा मूल पद्य ९२ तक आगे आ रही है ।
.
*१०.मोरध्वज-* की कथा पद्य टीका के पद्य ९२ में ९८ में आगे आयेगी ।
.
*११.एदवेद-* ब्रह्म थे वन में रहते थे । इन्होंने अपना सर्वस्व ओर्भु के समर्पण किया था । एक वेद आयोदधौम्य मुनि के शिष्य हुए हैं । इनकी गुरुभक्ति उत्तम थी । ये जन्मजेय के उपाध्याय थे । उत्तंक इनके शिष्य थे ।
.
*१२.पर्वत-* प्राचीन देवर्षि हैं, ये नारद जी के भानजे थे । ये जन्मजेय के सर्प सत्र में भी सदस्य बने थे । इनका और नारद जी का अनेक स्थलों में साथ साथ वर्णन मिलता है । इन्होंने भी अपना सर्वस्व प्रभु के समर्पण किया था ।
*१३.कुण्डलधृत जी* अति उदार और अपना सर्वस्व देने वाले महानुभाव भक्त हुए हैं ।
.
*१४.पिंगला वेश्या-* जनकपुर में रहती थी, दत्तात्रेय के २४ गुरु में भी यह है । इसने अपना सर्वस्व प्रभु के समर्पण करके भगवत् चिन्तन द्वारा प्रभु पद को प्राप्त किया था, यह प्रसिद्ध है ।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें