मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

*१३. मन कौ अंग ~ ६१/६४*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ ६१/६४*
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तन यों कीजै मन सा, मन यों साहै तन ।
कहि जगजीवन नांम ले, हरि भजि जागै जन ॥६१॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देह व मन में साम्य हो और मन देह को हरिभजन को प्रेरित करे तभी जीव कल्यणकारी जाग्रत हो सकता है ।
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तन यों कीजै मन सा, मन यों साहै तन ।
कहि जगजीवन रांमजी, केहि पर जागै मन ॥६२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं तन को मन के अनुकूल होना व मन का तन के अनुसार चलना यदि होतो मन जागृति कैसे होगी क्योंकि देह तो सर्वदा सुख ही चाहेगी और आशाओं के पाश में जीव बंधता जायेगा ।
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पवन प्रांन७ मनसा सुरति, मन मन माँहै बास ।
ए अंग उस घरि रहै थिर, सु कहि जगजीवनदास ॥६३॥
(७. पवन प्रांन=प्राण वायु)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्राण वायु व मन आशायें सब प्रभु के ध्यान में लगी हो तो अन्तर में एक आनंन्दित करने वाली खुशबु आती है और ऐसी देह धारी जीव उस प्रभु के घर स्थिर हो रहते हैं वे आवागमन के चक्कर से मुक्त होते हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, मन चंचल चलि जाइ ।
ऊँकार की वासना, घटि घटि खेलै आइ ॥६४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ओमकार की ध्वनि चंचल मन को भी सुस्थिर कर हर हृदय के द्वार खोल देती है ।
(क्रमशः)

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