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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन* द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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५५. प्रश्न । गजताल ~
कौण शब्द कौण परखणहार,
कौण सुरति कहु कौण विचार ॥टेक॥
कौण सुज्ञाता कौण गियान,
कौण उन्मनी कौण धियान ॥१॥
कौण सहज कहु कौण समाध,
कौण भक्ति कहु कौण आराध ॥२॥
कौण जाप कहु कौण अभ्यास,
कौण प्रेम कहु कौण पियास ॥३॥
सेवा कौण कहो गुरुदेव,
दादू पूछै अलख अभेव ॥४॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव जिज्ञासुओं के बोध के लिये परमेश्वर से प्रश्न करते हैं कि हे परमेश्वर ! आपका आदि कौन है ? - प्रणव । परीक्षक कौन है ? - विवेकी संत । वृत्ति कौन - सी श्रेष्ठ है ? - सहजावस्था रूप । उत्तम विचार क्या है ? - ब्रह्म विचार ।
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श्रेष्ठ ज्ञाता कौन है ? - ब्रह्म - ज्ञानी । उत्तम ज्ञान कौनसा है ? - जीव ब्रह्म की एकता रूप अभेद ज्ञान । उन्मनी कौन है ? नासिका के अग्र भाग पर दृष्टि लगाकर प्राणों का निरोध कर्ता । श्रेष्ठ ध्यान कौनसा है ? - आत्मध्यान ।
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सहजावस्था क्या है ? निर्द्वन्द्व अवस्था । उत्तम समाधि कौन - सी है ? - निर्विकल्प । श्रेष्ठ भक्ति कौन - सी है ? - परा भक्ति । आराध्य देव कौन है ? परब्रह्म ।
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श्रेष्ठ जाप कौन - सा है ? - अजपा सोहं । श्रेष्ठ अभ्यास क्या है ? - अहंकार रहित होना । उत्तम प्रेम कैसा है ? - निर्वासनिक । श्रेष्ठ अभिलाषा क्या है ? - परमेश्वर प्राप्ति की इच्छा ।
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उत्तम सेवा क्या है ? - जीव ब्रह्म सेवा करै । ब्रह्मऋषि सतगुरु देव कहते हैं कि हे मन इन्द्रियों के अविषय अनुभवगम्य परमेश्वर ! ये जो हमने आपसे प्रश्न किये, इनके विषय में आपका क्या मत है ? सो कृपा करके साधकों को बताइये । हे साधकों ! प्राणीमात्र से निबैर होकर अनन्य भाव से मेरा स्मरण करना ही श्रेष्ठ मत है ।
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उत्तर की साखी ~
कौण शब्द ?
दादू शब्द अनाहद हम सुन्या, नख शिख सकल शरीर ।
सब घट हरि हरि होत है, सहजैं ही मन थीर ॥१॥
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कौण परखणहार ?
प्राण जौहरी पारिखू, मन खोटा ले आवे ।
खोटा मन के माथे मारै, दादू दूर उड़ावै ॥२॥
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कौण सुरति ?
दादू सहजैं सुरति समाइ ले, पारब्रह्म के अंग ।
अरस परस मिल एक ह्वै, सन्मुख रहिबा संग ॥३॥
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कौण विचार ?
सहज विचार सुख में रहै, दादू बड़ा विवेक ।
मन इन्द्री पसरै नहीं, अंतर राखै एक ॥४॥
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कौण सुज्ञाता ?
दादू सो ही पंडित ज्ञाता, राम मिलण की बूझै ॥५॥
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कौण गियान ?
हंस गियानी सो भला, अंतर राखै एक ।
विष में अमृत काढ ले, दादू बड़ा विवेक ॥६॥
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कौण उन्मनी ?
मन लवरू के पंख हैं, उनमनि चढ़ै आकाश ।
पग रहि पूरे सांच के, रोपि रह्या हरि पास ॥७॥
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कौण धियान ?
जहँ विरहा तहँ और क्या, सुधि बुधि नाठे ज्ञान ।
लोक वेद मारग तजे, दादू एकै ध्यान ॥८॥
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कौण सहज ?
सहज रूप मन का भया, जब द्वै द्वै मिटी तरंग ।
ताता सीला सम भया, तब दादू एकै अंग ॥९॥
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कौण समाधि ?
सहज शून्य मन राखिये, इन दोनों के मांहि ।
लै समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नांहि ॥१०॥
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कौण भक्ति ?
योग समाधि सुख सुरति सौं, सहजैं सहजैं आव ।
मुक्ता - द्वारा महल का, इहि भक्ति का भाव ॥११॥
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कौण आराध ?
आत्मदेव आराधिये, विरोधिये नहीं कोइ ।
आराधे सुख ऊपजै, विरोधे दुख होइ ॥१२॥
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कौण जाप ?
सतगुरु माला मन दिया, पवन सुरति सौं पोइ ।
बिना हाथों निशदिन जपै, परम जाप यों होइ ॥१३॥
कौण अभ्यास ?
दादू धरती ह्वै रहै, तजि कूड़ कपट अहंकार ।
साँई कारण शिर सहै, ताकों प्रत्यक्ष सिरजनहार ॥१४॥
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कौण प्रेम ?
प्रेम लहर की पालकी, आतम बैसे आइ ।
दादू खेलै पीव सौं, सो सुख कह्या न जाइ ॥१५॥
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कौण पियास ?
दादू कोई बांछै मुक्ति फल, कोई अमरापुरी वास ।
कोई बांछै परम गति, दादू राम मिलन की प्यास ॥१६॥
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सेवा कौण ?
तेज पुंज को विलसना, मिल खेलैं इक ठाम ।
भर - भर पीवै राम रस, सेवा इसका नाम ॥१७॥
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आपा गर्व गुमान तज, मद मत्सर अहंकार ।
गहै गरीबी बन्दगी, सेवा सिरजनहार ॥१८॥
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सार मत कौण ?
आपा मेटै हरि भजै, तन मन तजै विकार ।
निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहु मत सार ॥१९॥
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मत्सर पै दृष्टान्त है, समुंदर दीनो शंख ।
जो चाहे सो देइगो, दुगुन परोसी अंक ॥५५॥
दृष्टान्त ~ एक सात्विक ब्राह्मण था । शिवजी की भक्ति करके शंकर भगवान् को प्रसन्न कर लिया । शंकर जी बोले ~ “मांग ।” ब्राह्मण बोले ~ खाने - पीने की तंगी रहती है । शंकर भगवान् बोले ~ समुद्र के पास जाकर बोलो कि शंकर भगवान् ने मुझे भेजा है, कुछ देओ । ब्राह्मण समुद्र के पास जाकर पहुँचा ।
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समुद्र ने उसको शंख दिया और बोला ~ इसकी पूजा करके इससे मांगना, तो यह एक तोला रोज सोना दे देगा । वह शंख लेकर एक गाँव में मन्दिर में आकर ठहरा । शंख की पूजा की और बोला ~ “कुछ देओ”, तो एक तोला दे दिया । पुजारिन को उस ब्राह्मण ने सोना दिया और बोला, “खूब रसोई बनाओ, भगवान् के भोग लगाओ और हम भी जीमें, तुम भी जीमो ।”
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पुजारिन ने रात को ब्राह्मण के थैले में से वह शंख निकाल लिया और अपना शंख रख दिया । ब्राह्मण सवेरे उठकर अपने गाँव चला और वहाँ जाकर, अपने घर शंख की पूजा की और बोला ~ “कुछ देओ ।” तब शंख ने कुछ भी नहीं दिया । तब फिर समुद्र के पास पहुँचा और सब बात सुना दी । समुद्र ने दूसरा शंख दिया और बोला - जिस मन्दिर में तूँ जाकर ठहरा था, उसी में जाकर ठहरना ।
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ब्राह्मण को देखकर पुजारिन बहुत खुश हुई । और लम्बे - लम्बे नमस्कार करने लगी । बहुत बढिया रसोई बनाई । ब्राह्मण बोला ~ खर्चा हम देंगे शंख की पूजा करके । ब्राह्मण बोला ~ कुछ देओ । शंख बोला ~ ले लो कितने रूपये चाहिये । ब्राह्मण बोला ~ सौ रुपये दे दो । शंख बोला ~ दो सौ ले लो । इस प्रकार ब्राह्मण बोलता, उस से शंख दुगना देने को कहता ।
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फिर ब्राह्मण बोला ~ अच्छा ! अभी नहीं चाहिये । शंख ने कहा ~ अच्छी बात है । पुजारिन ने देखा इससे मांगे “सौ और देता दो सौ”, यह शंख ठीक है । रात को वह शंख तो रख दिया और लहरी शंख पुजारिन ने लिया । ब्राह्मण सुबह उठकर अपने घर पहुँचा । स्नान करके शंख की पूजा की और बोला कुछ देओ । तो शंख ने एक तोला सोना उगल दिया ।
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उधर पुजारिन ने भी शंख की पूजा की और बोली ‘सौ रुपया दे दो ।’ शंख बोला ~ ‘दो सौ ले लो ।’ ‘दो सौ दे दो ।’ ‘चार सौ ले लो ।’ इस प्रकार काफी समय हो गया । पुजारिन बोली ~ ‘कुछ देते भी हो या कहते ही हो ?’ शंख बोला ~ ‘देने लेने को क्या है ? हम तो लहरी - शंख कहने मात्र के हैं, देने वाला तो चला गया ।’ यह सुनकर ब्राह्मणी बहुत पछताई ।
(क्रमशः)
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