बुधवार, 31 मार्च 2021

*‘नवविधान में सार है’*

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*दादू सचु बिन सांई ना मिलै, भावै भेष बनाइ ।*
*भावै करवत उर्ध्वमुख, भावै तीरथ जाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ भेष का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(३)
*केशवचन्द्र सेन और ‘नवविधान’ । ‘नवविधान में सार है’*
श्रीरामकृष्ण प्रसाद ग्रहण करके जरा विश्राम कर रहे हैं । इतने में राम, गिरीन्द्र तथा और भी कई भक्त आ पहुँचे । भक्तों ने माथा टेककर प्रणाम किया और आसन ग्रहण किया ।
श्रीयुत केशवचन्द्र सेन के नवविधान की चर्चा चली ।
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राम – (श्रीरामकृष्ण से) – महाराज, मुझे तो ऐसा नहीं जान पड़ता कि नवविधान से कोई उपकार हुआ हो । केशव बाबू अगर सच्चे होते, तो फिर उनके शिष्यों की यह दशा क्यों होती ? मेरे मत से उनके भीतर कुछ भी नहीं है । जैसे खपरे बजाकर दरवाजे में ताला लगाना । लोग सोचते हैं, इसके खूब रूपये हैं – झनकार हो रही है, परन्तु भीतर बस खपरे ही खपरे हैं ! बाहर के लोग भीतर की खबर क्या जानें !
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श्रीरामकृष्ण – कुछ सार जरुर हैं । नहीं तो इतने आदमी केशव को क्यों मानते हैं ? शिवनाथ को लोग क्यों नहीं पहचानते ? ईश्वर की इच्छा के बिना ऐसा कभी होता नहीं ।
“परन्तु संसार का त्याग किये बिना आचार्य का काम नहीं होता । लोग कहते हैं, यह संसारी आदमी है, यह खुद तो कामिनी और कांचन का छिपकर भोग करता है और हमसे कहता है, ‘ईश्वर ही सत्य हैं – संसार स्वप्नवत् अनित्य है ।’ सर्वत्यागी हुए बिना उसकी बात सब लोग नहीं मानते ।
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जो लोग संसार में पड़े हैं उन्हीं में कोई कोई मान सकते हैं । केशव के घर-द्वार, कुटुम्ब-परिवार था, अतएव मन भी संसार में था । संसार की रक्षा भी तो करनी होगी ? इसीलिए इतना लेक्चर उसने दिया, परन्तु अपने संसार को बड़ी मजबूती में रख गया है । कैसा दामाद है ! मैं उसके घर के भीतर गया, देखा बड़े बड़े पलंग हैं । सांसारिक काम करने लगे तो धीरे धीरे ये सब आ जाते हैं । भोग की ही भूमि संसार कहलाती है ।”
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राम – वे पलंग और मकान केशव को हिस्से में मिले थे । महाराज, आप कुछ भी कहें, परन्तु विजय बाबू ने कहा है – ‘केशव सेन ने मुझसे कहा था, मैं ईसा और गौरांग का अंश हूँ और तुम अपने को अद्वैत का अंश बतलाया करो ।’ और उसने क्या कहा था – आप जानते हैं ? आपको कहा था – वे भी नवविधान के हैं ! (श्रीरामकृष्ण और सब हँसते हैं ।)
श्रीरामकृष्ण – (हँसते हुए) – परमात्मा जाने, मैं तो यह भी नहीं जानता कि नवविधान का अर्थ क्या है । (सब हँसते हैं ।)
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राम – केशव की शिष्यमण्डली कहती है, ज्ञान और भक्ति का समन्वय सब से पहले केशव बाबू ने किया है ।
श्रीरामकृष्ण – (आश्चर्य में आकर) – यह क्या ! तो फिर अध्यात्म-रामायण है क्या ? नारद श्रीरामचन्द्र की स्तुति करते हैं – ‘हे राम ! वेदों में जिस परब्रह्म की कथा है, वह तुम्हीं हो । तुम्ही(ब्रह्म ही) मनुष्य के रूप में हमारे पास हो, तुम्हें(ब्रह्म को) ही हम मनुष्य देख रहे हैं; वस्तुतः तुम मनुष्य नहीं हो – वही परब्रह्म हो ।’ श्रीरामचन्द्र ने कहा, ‘नारद, तुम पर मैं प्रसन्न हुआ हूँ; तुम वर माँगो ।’ नारद ने कहा, ‘राम, और क्या वर माँगूँ; अपने पादपद्मों में मुझे शुद्धा भक्ति दो । और अपनी भुवनमोहिनी माया में कभी फँसा न देना ।’ इस तरह अध्यात्म-रामायण में केवल ज्ञान और भक्ति की ही बातें हैं ।
(क्रमशः)

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