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*दादू सबही वेद पुराण पढ़ि, नेटि नाम निर्धार ।*
*सब कुछ इन ही मांहि है, क्या करिये विस्तार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*वाणी विचार का अंग १४६*
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प्रकट सु प्राकृत सूर१ सम, निगम२ नैन उनहार३ ।
जन रज्जब जग एक बिन, चहुंधा४ घोर अँधार ॥५॥
प्राकृत वाणी सूर्य१ के समान प्रकट है और वेद२ वाणी संस्कृत नेत्रों के समान३ है, जैसे एक सूर्य के बिना जगत में चारों४ और घोर अंधकार रहता है नेत्रों से कुछ भी नहीं दीखता । वैसे ही प्राकृत बिना वेद वाणी से भी कुछ भी ज्ञान नहीं होता अज्ञानांधकार ही रहता है ।
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पिंड प्राण बिना कुछ नहीं, शबद न साबित१ होय ।
तैसे हि रज्जब संस्कृत, बिना जु प्राकृत जोय२ ॥६॥
जैसे प्राण के बिना शरीर कुछ नहीं, वैसे ही देखो२ प्राकृत के बिना संस्कृत का शब्द भी सिद्ध१ नहीं होता, कारण-प्राकृत से ही संस्कृत बनी है ।
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रज्जब प्राकृत पेट में, संस्कृत सुत हैं कोड़ि ।
ज्यो बिच बाड़ी बाग बहु, चकहुं१ बड़ी चहुं ओड़ि ॥७॥
जैसे चारों ओर विशाल पृथ्वी१ के बीच में बहुत से बाग और बाड़ियां है, वैसे ही प्राकृत के पेट में संस्कृत शब्द रूप कोटिन पुत्र है अर्थात प्राकृत से कोटिन संस्कृत शब्द बने हैं ।
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बीज रूप कछु और था, वृक्ष रूप भया और ।
त्यों प्राकृत तैं संस्कृत१, रज्जब समझया ब्यौर२ ॥८॥
बीज कर रूप कुछ प्रकार का होता है और उससे उत्पन्न वृक्ष रूप अन्य ही होता है । वैसे ही बीज रूप प्राकृत का स्वरूप अन्य प्रकार का है और कार्य रूप संस्कृत१ का स्वरूप अन्य प्रकार का हो जाता है । यह हमने सम्यक विवरण२ से समझा है ।
(क्रमशः)
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