गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

*१५. माया कौ अंग ~ १०९/११२*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१५. माया कौ अंग ~ १०९/११२*
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जगजीवन पसु की व्रित्ति, जब लग न दूजी प्यास ।
रांम रांम हरि हरि सुमरि, भजिये नांम निवास ॥१०९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब तक पर ब्रह्म को जानने की तृषा नहीं होती या प्यास नहीं होती तब तक जीवन पशुवत है । संत कहते हैं कि स्मरण करते करते ही परमात्मा के घर का ध्यान करें ।
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राग रंग मंहि मन दिया, उरझि रह्यां इंहि ठांम ।
कहि जगजीवन दरद सौ, कबहूँ कह्या न रांम ॥११०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस संसार के राग रंग विषयों में तो जीव रमा रहा उसने कभी प्रभु का नाम कभी भी विह्वलता से नहीं लिया ।
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रोम रोम कंद्रप१ सौं, काया कसै कुबुधि ।
कहि जगजीवन रांम हरि, सुमिरण रहै सुबुधि२ ॥१११॥
{१. कंद्रप=कन्दर्प(कामदेव)} (२. सुबुधि=सद्बुध्दी)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस देह के रोम रोम में काम व्याप्त है । जिससे कुबुद्धि आती है और राम नाम स्मरण से सुबुद्धि रहती है ।
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अझूंठ कोटि तन छिद्र है, नख सिख बिषै बिलास ।
व्यंद३ ज्यंद४ में क्यों रहै, सु कहि जगजीवनदास ॥११२॥
{३. व्यन्द=बिन्दु(वीर्य की बिन्दु)} (४ ज्यंद=जीवन या शरीर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस झूठी देह में करोड़ों छिद्र है जिनके द्वारा विषय विकार अंतर में पहुंचते हैं जो नख से चोटी तक भरे हैं । यह तो पूरी देह में ही है, फिर बूंद से उत्पन्न देह में जीव जैसे सूक्ष्म होकर नहीं रहते हैं ।
(क्रमशः)

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