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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ साक्षीभूत कौ अंग ३५ - १/२)*
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*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
*सब देखणहारा जगत का, अंतर पूरै साखि ।*
*दादू साबित सो सही, दूजा और न राखि ॥२॥*
जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति इनके भेद से जीव की तीन अवस्था होती है । संपूर्ण इन्द्रियों के बाह्य अर्थ का जिस अवस्था में ज्ञान होता है, उस अवस्था को जाग्रत अवस्था कहते हैं । जिस अवस्था में जाग्रद् भोगों की वासना के कारण जीव के अन्तःकरण में सूक्ष्म रूप में भोक्ता भोग्य आदि का परिणाम होता है, उस अवस्था को स्वप्नावस्था कहते हैं ।
स्थूल सूक्ष्म जगत् का अपने कारण स्वरूप अज्ञान में लय होने के बाद जो साक्षी से वैद्य अज्ञान शेष रहता है उस अवस्था को सुषुप्ति अवस्था कहते हैं । आत्मा इन तीन अवस्थाओं का तथा संपूर्ण जगत् का दृष्टा भर्ता अनुमोदन करने वाला तथा अन्तर्यामी रूप से सबका प्रेरक सत्य स्वरूप है । उसकी ही उपासना सभी को करनी चाहिये । यह आत्मा सब का साक्षी कहलाता है ।
आत्मा में साक्षित्व का ज्ञान कैसे हो ! तो कहते हैं कि उस में साक्षित्व का लक्षण विद्यमान है तो फिर साक्षी का क्या लक्षण है? तो कहते हैं कि-
जैसे लोक में उदासीन वृत्ति से कोई सन्यासी महात्मा खडा है वहां पर आने वाले पुरुषों को उनकी संपूर्ण अवस्थाओं तथा उन व्यापारों को देखता हुआ भी निर्विकार रहता है । ऐसे ही आत्मा भी जीव की तीनों अवस्थाओं को और उन अवस्थाओं में होने वाले उनके व्यापार कर्मों को और जीवों देखता हुआ आकाश की तरह असंग कूटस्थ निर्विकार रूप से स्थित रहता है तथा प्रत्येक चैतन्य से उसका अभेद रहता है ।
इस प्रकार आत्मा का श्रुतियुक्ति अनुभव से साक्षित्व जाना जाता है । वही आत्मा प्रत्येक जीव के अन्दर जीव रूप से प्रविष्ट है और जीव रूप से संसार में आता जाता है । इस प्रकार आत्मा के पारमार्थिक रूप में सारे वेदान्त प्रमाण स्वरूप हैं । तीनों अवस्था वाला चिदाभास रूप जीव इस समय जागता है, सोता है, इस समय अज्ञान मोहित होकर बुद्धि का अनुभव करता है । सुखी दुःखी उदासीन है । इन सब जीव की अवस्थाओं को इन सबसे अतीत रहकर जानता है वह ही अवस्था त्रय से रहित जीव साक्षी कहलाता है । श्रुति भी केवल निर्गुण चैतन्य ब्रह्म को साक्षी बतलाती हैं ।
जीव से अतिरिक्त आत्मा को जो साक्षी कहा है उसका क्या लक्षण है ? उसके अस्तित्व में क्या प्रमाण है और उस के ज्ञान का क्या उपाय है ? इस सब शंकाओं का समाधान कह रहे हैं कि-जो निर्विकार कूटस्थ आत्मा है वह ही साक्षी है । यह आत्मा ही आकाश की तरह सर्वव्यापक सच्चिदानन्द रूप है तथा सबके अन्तःकरण में जीव रूप से प्रविष्ट होकर संसार में आता जाता है ।
अतः इस पारमार्थिक आत्मतत्त्व में सारे वेदान्तवाक्य ही प्रमाण हैं । तीन अवस्था वाला चिदाभास रूप जीव इस समय जागता है, स्वप्न देखता है, अज्ञान से मोहित होकर सुषुप्ति में रहता है, तथा सुखी दुःखी होता हैं तथा इस समय उदासीन है, यह सब जीव की जो अवस्थायें हैं उन सब को चिद्रूप साक्षी चैतन्य जान रहा है । अतः अवस्था त्रय को जानने वाला ही साक्षी कहलाता है ।
जैसे अपने मुख की सुन्दरता को स्वयं मुख नहीं जान सकता है किन्तु दर्पण में प्रतिबिम्बित मुख के द्वारा मुख की सुन्दरता को जान सकता है । ऐसे ही आत्मा की निर्विकारता को अन्तःकरण प्रतिबिम्बित चैतन्य के द्वारा जाना जा सकता है । जैसे दर्पण और दर्पण में प्रतिबिम्बित मुख ये दोनों ही विम्बभूत मुख को नहीं जान सकते, वैसे ही अन्तःकरण और उसमें प्रतिबिम्बित जीव भी विम्बभूत आत्मा को नहीं जान सकता ।
फिर आत्मा को कैसे जाना जा सकता है । नहीं, आत्मा को कोई भी नहीं जान सकता क्योंकि जो भी जाना जा सकता है वह ज्ञायमान होने से दृश्य कोटि में आ जाता है और आत्मा तो दृग् रूप है दृश्य नहीं । इसके अलावा आत्मा स्वयं प्रकाश होने से भी किसी भी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता ।
तो फिर कैसे जाना जायगा ? इसका समाधान यह है कि दृश्य जो घट है वह अपने दृष्टा को नहीं जान सकता किन्तु वह दृष्टा स्वयमेव स्वयं को जानता है प्रकाश रूप होने से । अतः आत्मा अनुभव रूप ही है, वह किसी भी ज्ञान का विषय न होने से अनुभाव्य नहीं है ।
किंच जैसे पहले बतलाये हुए संन्यासिकों पुरुष तथा तज्जन्य अवस्था और व्यापार कर्म से उत्पन्न गुण दोष स्पर्श नहीं कर सकते क्योंकि वह उदासीन है वैसे ही आत्मा भी जीवों की अवस्थात्रय तथा उससे उत्पन्न होने वाले गुण दोष से रहित है और अवस्था वाले जीवों को देखते हुए भी निर्विकार कूटस्थ असंग रूप से प्रत्यक् चैतन्य ब्रह्म से अभिन्न होकर ही रहता है । इस प्रकार जो साक्षिमात्र तथा अहंकारादि दोषों से असंम्पृक्त चैतन्य मात्र रूप से अनुभव करता है, वह जीवन्मुक्त हो जाता है । इसी अभिप्राय से आचार्य श्री दादूजी ने “सब देखन हारा जगत का अन्तर पूरै साखि” ऐसा कहा है ।
(क्रमशः)
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