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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१५. माया कौ अंग ~ १२५/१२८*
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एक बूंद मुख मैं पड़ी, एक और को आस ।
मूरिख हरि सुमिरै नहीं, सु कहि जगजीवनदास ॥१२५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव संसार के विषय रस की एक बूंद पाने से ही इतना आनंदित होता है कि वह एक और की आशा कर बैठता है इसी क्रम में बढता है । मूरख जीव हरि स्मरण कर, जो कल्याण कारक है ।
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केहरि काल कूंण ग्रिह कहिये, आंबरदा बेली नर गहिये ।
रात दिवस ये मूसा कहिये, भांमनि भुजंग देख क्यों रहिये ॥१२६॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि काल शेर है जिससे बचने के लिये जीव मोह रुपी लताओ में अटकता है रात दिन ये मूषक है जो उसकि आयु को काट रहे हैं और स्त्रियों को सांप कहा गया है । जो विषयों का आरण है ।
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महु हाल्यौ तहां माया जाला, स्त्रवैं चूंथै बाली बाला ।
बूंद बिषै की धृग१ ए आस, हरि भजि कहि जगजीवनदास ॥१२७॥
{१. धृग=धिक्(धिक्कार)}
संतजगजीवन जी उसी कथा में आगे बढते हुये कह रहे हैं कि जिस कूप में जीव गिरा है वहां माया जाल के जाले है जिसमें जीव फंसता है और टपकते शहद की आशा में जीवन को खो देता है, और यह मन हर विषय बूंद की चाह करता है संत कहतै हैं धिक्कार है ऐसे जीवन पर जो ऐसे विषय में लग कर हरि स्मरण नहीं करता है ।
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सकल त्रास२ ए परिहरै, हरि भजि रांम निवास ।
तो प्रांणी तन ऊबरै, सु कहि जगजीवनदास ॥१२८॥
(२. त्रास=दुःख)
संतजगजीवन जी कहते है सभी कष्टों को छोडकर हरि भजन कर इस देह को प्रभु के रहने योग्य करें इसी से इस देह का कल्याण होगा ।
(क्रमशः)
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