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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ साक्षीभूत/बेली कौ अंग ३५.३६ - १४/१७.१/२)*
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*ना हम करैं करावैं आरती, ना हम पिवैं पिलावैं नीर ।*
*करै करावै सांइयाँ, दादू सकल शरीर ॥१४॥*
*करै करावै सांइयाँ, जिन दिया औजूद ।*
*दादू बन्दा बीच में, शोभा को मौजूद ॥१५॥*
*देवै लेवै सब करै, जिन सिरजे सब कोइ ।*
*दादू बन्दा महल में, शोभा करैं सब कोइ ॥१६॥*
मैं किसी की आरती, स्तुति न करता हूं, न करवाता हूं । न चरणोदक पीता, न पिलाता हूं । किन्तु मेरे हृदय में स्थित परमात्मा आत्मरूप से स्थित होकर जैसी प्रेरणा करते हैं । वे ही मेरे शरीर के द्वारा सब कुछ करते-कराते हैं । जिसने यह शरीर बनाया है, वह प्रभु ही मेरे शरीर से कल्याणप्रद कार्य करते-करवाते हैं ।
केवल भक्त की शोभा बढाने के लिये बीच में भक्त का नाम ले देते हैं कि यह कार्य इस भक्त ने किया है । भक्त तो ब्रह्मपरायण होकर समाधि देश में साक्षीभाव से सदा स्थित रहते हैं । पञ्चविशंतिस्तोत्र में लिखा है कि- अहो ! मैं शरीर सहित इस सारे विश्व को त्याग कर अपनी कुशलता से परमात्मा को समाधि में देखता हूं । जैसे जल से तरंग और बुदबुदे भिन्न नहीं, उसी प्रकार आत्मा से निकलने वाला यह विश्व भी उससे भिन्न नहीं हैं ।
केवल आत्मा के अज्ञान से विश्व की भ्रान्ति हो रही थी, अब जब आत्म ज्ञान हो गया तो वह भ्रान्ति नष्ट हो गई । जैसे रज्जु के अज्ञान से सर्प की भ्रान्ति हो रही थी । जब रज्जु का ज्ञान हो गया तो सर्प-भ्रान्ति अपने आप ही निवृत्त हो गई ।
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*॥ कर्त्ता साक्षीभूत ॥*
*दादू जुवा खेले जाणराइ, ताको लखै न कोइ ।*
*सब जग बैठा जीत कर, काहू लिप्त न होइ ॥१७॥*
॥ इति साक्षीभूत कौ अंग संपूर्ण समाप्त ॥३५॥
नाना कर्मफलों के भोगने योग्य यह बाह्य पृथिव्यादि जगत् तथा आध्यात्मिक जगत् की रचना अद्भुतकारी है । जिसको बुद्धिमान् मनुष्य मन से सोच-विचार भी नहीं सकते । यह सारा खेल ध्यूत क्रीडा की तरह से है, इस जगद् रचनारूप क्रीडा में न प्रभु को हर्ष-शोक होता है । न कहीं भी उनकी आसक्ति दीखती । न वे अहंकार करते हैं । किन्तु सारे जगत् को अपने वश में करके अपनी महिमा में सदा स्थित रहते हैं ।
उनके भक्त भी अहंकार रहित समाहित मन से आत्मानन्द रूपी अमृत के सिंचन से आन्तर तापसमूह को शान्त करते हुए आनन्द स्वरूप उद्यान में सदा विचरते रहते हैं ।
आत्मविद्याविलास में लिखा है कि- “साक्षी स्वरूप ज्ञानी महात्मा किसी भी रूप को नहीं देखता और न किसी प्रकार के वचन को सुनता है तथा निरुपम भूमा ब्रह्म में दृढ़ निष्ठा बनाकर काष्ठ की तरह से स्थित रहता हैं ।
दोष बुद्धि से किसी का निषेध नहीं करता, गुण बुद्धि से किसी वस्तु का ग्रहण नहीं करता । किन्तु यह सब जगत् आविद्यक है ऐसा मानकर मौन होकर उदासीन रहता है । उदासीनता को ही साक्षी कहते हैं ।”
॥ इति साक्षीभूत के अंग का पं. आत्माराम स्वामी कृत भाषानुवाद समाप्त ॥३५॥
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*॥ अथ बेली कौ अंग ॥३६॥*
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।*
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥*
*दादू अमृत रूपी नाम ले, आत्म तत्त्वहि पोषै ।*
*सहजैं सहज समाधि में, धरणी जल शोषै ॥२॥*
परमात्मा के नामामृत के चिन्तन से अन्तःकरण को शुद्ध करके साधन द्वारा धीरे-धीरे सहजावस्था रूप समाधी में स्थित होकर विषयजल का शोषण करके अपने अन्तःकरण को ब्रह्म में लीन करो । जिससे फिर संसार में न आना पडे ।
योगवासिष्ठ में लिखा है कि- “विवेकी पुरुष विषयों में दोष भावना करे और अपने में आत्मभावना करे, जिससे विषयवासना के क्षीण होने से वासनासहित सारा संसार इस प्रकार से नष्ट हो जाता हैं कि जैसे वसन्त ऋतु के अन्त में अर्थात् ग्रीष्म में पृथ्वी का रस(जल) सूख जाता हैं ।
(क्रमशः)
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