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*राते माते प्रेम रस, भर भर देहु खुदाइ ।*
*मस्तान मालिक कर लिये, दादू रहे ल्यौ लाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*अक्रूरजी की पद्य टीका*
*अक्रूर चले मथुरा पुर तै,*
*दृग नीर बहै हरि को कब देखौं ।*
*सौंण मनावत देखन भावत,*
*लोटत है लखि चिन्ह विशेखौं१ ॥*
*वन्दन भक्ति प्रवीण महासुख,*
*देव कही यह जीवन भै खौं२ ।*
*राम रु कृष्ण मिले सु फले मन,*
*स्वार्थ लाख जन्म हि लेखौं३ ॥८७॥*
कंस के भेजने पर अक्रूर जी श्रीकृष्ण और बलरामजी को लाने के लिये मथुरा से वृन्दावन चले तब उनके नेत्रों में हर्ष के अश्रु बह रहे थे और वे मन में सोचते जाते थे कि – मैं कब हरि का दर्शन करूंगा ?
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वे श्रीकृष्ण के शीघ्र दर्शन करने के लिये शकुन मनाते जाते थे । उनके मन में कृष्ण दर्शन का अत्यधिक भाव था । जब वृन्दावन के समीप पहुँचे तब वहां भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों के चिन्हों में वज्र, अंकुश आदि विशेष१ चिन्ह देखकर प्रेम पूर्वक उन पर लोटने लग गये ।
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आप वन्दन भक्ति का महासुख प्राप्त करने में अति निपुण थे । इनके अद्भुत प्रेम को देखकर देवताओं ने भी कहा – इनका यह जीवन भय को खोकर२ सफल है ।
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फिर बलराम और कृष्ण का दर्शन मिलने पर उनके मन का मनोरथ सफल हो गया और वे सोचने लगे – लाखों जन्मों के पश्चात् आज मैं अपने निजी आत्मस्वरूप परमात्मा रूप धन३ को देख रहा हूं । मेरा यह जन्म धन्य है । अक्रूरजी की विशेष कथा छप्पय ८९ की टीका में देखें ।
(क्रमशः)
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