रविवार, 25 अप्रैल 2021

*१५. माया कौ अंग ~ १२१/१२४*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१५. माया कौ अंग ~ १२१/१२४*
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किराड१ किते एक ओर तन, इस अंग करता सीर ।
कहि जगजीवन नांउं भजि, रहै न निहचल थीर ॥१२१॥
{१. किराड़=छोटा व्यापारी(बाणियाँ)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि इस देह में व्यापार करने को कितने व्यापारी सजग है कोइ देखने का कोइ सुनने का कोइ अन्य किसी का । संत कहते है बिना स्मरण के यह स्थिर नहीं रह सकता है ।
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ताथैं डरिये देखि मन, आंन विषै रस त्याग ।
कहि जगजीवन हरि भगत, रांम सुमिर जिव जाग ॥१२२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बाह्य आडंबरों को छोड़कर अन्य विषयो में लिप्त होने से डरें । हे जीव अज्ञान से जागकर हरि भक्त की भांति हरि की भक्ति करो।
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*पंथी केहरि२ देख करि, जीव माँहि आंन्यौ त्रास ।
कूप धस्यौ बेली३ गही, तिहिं तल भुजंग निकास ॥१२३॥
(२. केहरि=केसरी सिंह) (३. बेली=लता)
*१२३ से १२७ तक की साखियाँ उस आध्यात्मिक कथा की ओर संकेत करती हैं जिसे सन्त जन धर्मकथा(सत्संग) में सुनाया करते हैं । कथा का संक्षेप यह है--किसी जंगल में जाता हुआ कोई यात्री सामने आते हुए सिंह को देखकर उससे डर कर पीछे भागता हुआ किसी अन्धेरे पुराने कूए में जा गिरा । उस कूए की दीवारों में बड़ी बड़ी लताएँ उगी हुई थीं । उन लताओं में फंस कर वह वहाँ ओंधे मुँह लटक गया । कुछ देर में उस को नीचे कुए में एक बहत बड़ा विषधर काला सर्प दिखायी दिया । उसे देखकर वह और भी भयभीत हुआ कि यदि मेरे भार से यह लता टूट गयी तो नीचे गिरते ही यह सर्प मुझे काट लेगा । इसी बीच उस कुए के निकट ही किसी वृक्ष की शाखा में मधुमक्खियों के छाते से टपकती हुई मधु की बूँदों को देखकर उस का मन भी ललचाया ।
ऊपर जिस लता की शाखा में उसके पैर उलझे हुए थे उस को दो चूहे--एक सफ़ेद और एक काला--धीरे धीरे काट रहे थे । लता के कट जाने पर निश्चय ही कूए में गिरेगा वहाँ उस सर्प के डस लेने पर उसका प्राणान्त हो जायगा । इतने पर भी वह मूर्ख उस मधुबिन्दु का लोभ नहीं छोड़ पा रहा था ।
संत जगजीवन जी कहते हैं कि जीव लोभ में पड़कर अपनी स्थिति उक्त कथा जैसी कर लेता है जिसमें शेर से बचने जीव दौड़ता है व कूप में गिरता है वहां लताओ में अटका हुआ उपर देखता है तो मधुमक्खी के छत्ते से शहद टपक रहा होता है और कूपतल में भयंकर विषधर है पर वह फिर भी लोभवश उस मधु को प्राप्त करना चाहता है ।
जबकि वह देखता है कि दो मूषक जो दिन व रात रुप है, वे उस लता जो कि समय का प्रतीक है को काट रहे हैं व कटते ही कालरुपधारी विषधर डसेगा फिर भी जीव मधुलोभ यानि मोह को नहीं छोड़ता है ।
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आष विवर बेली करै, मधु हाल्यौ तिहिं पास ।
दसौं दिसा सुधा बीखर्यो, प्रांनी अधिक उदास ॥१२४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि आशा रुपी उस बेल में मधु है । यह मोह दृष्टि है । पर यह अमृत जैसा जब सब ओर बिखर जाता है तो जीव बड़ा निरिश होता है ।
(क्रमशः)

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