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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
साभार : महामण्डलेश्वर स्वामीअर्जुनदास जी महाराज,बगड़ झुंझुनूं । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*(#श्रीदादूवाणी ~ साक्षीभूत कौ अंग ३५ - ११/१३)*
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*॥ साधु साक्षीभूत ॥*
*कर्त्ता ह्वै कर कुछ करै, उस मांहि बँधावै ।*
*दादू उसको पूछिये, उत्तर नहीं आवै ॥११॥*
अपने को कर्म का कर्ता मान कर जो कर्म करता है, वह उस कर्म के फल की आशा में बंधा हुआ सुख-दुःख रूपी कर्म फल को भोगता हैं और ज्ञानी फलाशा को त्याग कर तथा अपने को अकर्ता समझकर कर्म करता है तो वह कभी बन्धन में नहीं आता, क्योंकि वह कर्म करके भी अकर्ता ही रहता हैं और न कर्मफल की कभी इच्छा करता है ।
वह तो साक्षी की तरह केवल दृष्टा बना रहता हैं । किंच कर्मशास्त्र तो प्रवृत्ति का जनक है और ज्ञान शास्त्र निवृत्ति करता है । अतः ये दोनों परस्पर में कभी भी एक दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते हैं । जैसे तृण समुदाय और अग्नि अथवा तेज और अन्धकार परस्पर में विरुद्ध होने से कभी भी एक दूसरे की अपेक्षा नहीं करते । ज्ञान कर्म का समुच्चय भी विरुद्ध होने से नहीं हो सकता । किन्तु कर्म तो ज्ञान की सन्निधिमात्र को भी नहीं चाहता ।
कहा है कि सर्व वेदान्तसार संग्रह में- जैसे करोडों इन्धन समुदाय से जलती हुई अग्नि सूर्य का कुछ भी उपकार करने में समर्थ नहीं है । क्योंकि ज्ञान के सामने कर्म स्वयं ही लीन(नष्ट) हो जाता है । इसी अभिप्राय से श्री दादूजी ने कहा है कि "दादू उस को पूछिये उत्तर नहीं आवे" ऐसा लिखा हैं ।
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*दादू केई उतारैं आरती, केई सेवा कर जांहि ।*
*केई आइ पूजा करैं, केई खिलावें खांहि ॥१२॥*
*केई सेवक ह्वै रहे, केई साधु संगति मांहि ।*
*केई आइ दर्शन करैं, हम तैं होता नांहि ॥१३॥*
कितने ही श्रद्धाभाव से परमेश्वर की आरती करते हैं । कितने ही उसको भजते-पूजते हैं । कितने ही भगवान् को भोजन करा कर उसका प्रसाद मान कर स्वयं भी खाते हैं । कितने ही साधु संगति कर रहे हैं । कितने ही प्रतिदिन भगवान् का दर्शन करते हैं ।
परन्तु जिनको अद्वैत ज्ञान हो गया वे ज्ञानी न किसी की सेवा, पूजा, आरती, दर्शन, प्रसाद आदि कुछ भी नहीं करते, क्योंकि इस सब साधनों का फल जो ज्ञान रूप फल है उसको प्राप्त करके कृतकृत्य हो गये । वे ब्रह्मरूप होकर साक्षिभाव से स्थित रहते हैं ।
अनुभवपञ्चविशंति में लिखा है कि- मुझे बड़ा ही आश्चर्य है कि मुझ आनन्द के महासमुद्र में जीवरुपी तरंगे स्वभाव से ही उत्पन्न होती हैं, खेलती हैं, नष्ट हो जाती हैं, बार-बार प्रविष्ट होती हैं ।
अहो ! मेरे में यह विश्व स्थित हैं । परन्तु विचार कर देखने से यह विश्व कुछ है ही नहीं, मैं ही सर्वस्व हूं । अतः न मेरा बन्ध है न मोक्ष हैं । मेरी बंध मोक्ष की निराधार जो भ्रान्ति थी वह अब शान्त हो गई ।
(क्रमशः)
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