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*दादू जे विष जारे खाइ कर, जनि मुख में मेलै ।*
*आदि अन्त परलै गये, जे विष सौं खेलै ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*अज्ञान अचेत का अंग १५०*
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रज्जब रैनि अचेत१ में, उडगण२ इन्द्री तेज ।
तिमिर३ नींद करि पुष्ट४ ह्वै, हूं हैरान५ इहि हेज६ ॥१३॥
रात्रि में तारा२ गण का तेज अधेरे से बढता है । वैसे ही अज्ञानी१ में इन्द्रियों का बल मोह नींद से बढता४ है । इस अंधेरे३ तारागण और इन्द्रिय नींद का प्रेम६ देखकर हम आश्चर्य५ युक्त होते हैं ।
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इन्द्री घूघू१ नेत२, अचेत३ रैनि करि पोखिये ।
सही४ उभय अंग५ प्रेत६, रज्जब रजनी मोखिये७ ॥१४॥
रात्रि में उल्लू१ नेत्रों२ का पोषण होता है, वैसे ही अज्ञान से अज्ञानी३ की इन्द्रियों का पोषण होता है । जब रात्रि और अज्ञान चले७ जाते हैं तब निश्चय४ ही उल्लू के नेत्र और अज्ञानी की इन्द्रियों का आकार५ दोनों मुर्दे६ के समान हो जाते हैं ।
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चोर जार वट पार विधु, वन वैरी त्रिय हाथ ।
रज्जब रजनी ज्ञान बिना, बलवन्त इन्द्री नाथ ॥१५॥
चोर, जार, बटपार, चन्द्रमा, अग्नि और नारी का हाथ, ये रात्रि में बलवान होते हैं, वैसे ही इन्द्रिय और इन्द्रिय नाथ मन ज्ञान बिना अज्ञान में बलवान होते हैं ।
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अरिल -
अस्थल१ अशुध२ अचेत३, प्रेत परिवार तन ।
अरि इन्द्री अघ ठौर, ममत४ मति हीन मन ॥
भोली५ भूल चक६ चूक७, विघ्न विस्तार रे ।
परि हाँ रज्जब रैनि अचेत, पगै पग मार रे ॥१६॥
अशुद्ध२ स्थान१ में प्रेत का परिवार रहता है, वहाँ रात्रि को पद पद पर भय रहता है । वैसे ही अज्ञानी३ का शरीर पाप का स्थान है । उसमें अजीत इन्द्रिय रूप शत्रु, ममता४, बुद्धि हीनता, हीन मन, भोलापन५, भूल, भ्रान्ति६, कपट७ और विघ्नों का विस्तार रहता है, इसलिये पद पद में अज्ञानी पर मार पड़ती है ।
(क्रमशः)
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