#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
संसार सागर विषम अति भारी,
जनि राखै मन मोही ।
दादू रे जन राम नाम सौं, कश्मल देही धोई ॥
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. १८४)*
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साभार ~ बिष्णु देव चंद्रवंशी
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संसार तो कज्जल की कोठरी है। इसका जितना ज्यादा सम्पर्क बढ़ाओगे उतनी ही कालिमा लगेगी। जो वस्तु जैसी है उसको वैसी ही रहने दो। जितना प्रयोजन है उससे काम ले लो, व्यवहार चलाओ, पर संसार में प्रेम मत करो। संसार के पदार्थ बाधक नहीं, उन्के प्रति अपना प्रेम अपने लिये बाधक है। संसारी - जन राग के पात्र नहीं, परमात्मा में राग बढ़ाओ।
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पहले अपने को जानो फिर परमात्मा को जानने का प्रयत्न करो। अपने को न जान सके तो संसार को जान कर भी तो अज्ञानी ही रहोगे। अपने सम्बन्ध में जब अज्ञान बना है तो दूसरे का ज्ञान होकर ही क्या होगा। अपने घर में कूड़ा - करकट भरा रहे और दूसरे के मकानों में झाड़ू देते फिरो, यह तो कोई बुद्धिमानी नहीं है। जिस दिन अपने को जान लोगे उसी दिन मन की सारी गरीबी निकल जायगी और सुख - शान्ति का अनुभव होने लगेगा।
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तुम तो सच्चिदानन्द स्वरूप परमात्मा के अंश हो अपने को भूल कर दुःख - सागर में डूब रहे हो एक बार विचार करके देख लो कि तुम कौन हो। संसार में जितना जो कुछ तुम अनुभव करते हो, वह सब तुम से अलग है। शरीर, मन, बुद्धि, प्राण आदि सब कुछ तुम अपना मानते हो -- कहते हो कि हमारा शरीर, हमारा मन, हमारी बुद्धि, हमारा प्राण। स्पष्ट है, जो कुछ अपना मानते हो उसके तुम स्वामी तो हो, पर तुम्हारा अस्तित्व उससे ऐसे भिन्न है जैसे तुम्हारा घर, तुम्हारा मंदिर है।
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मंदिर तुम्हारा है पर तुम मंदिर नहीं हो। इसी प्रकार शरीर, मन, बुद्धि, प्राण आदि तुम्हारे हैं, पर तुम वह नहीं हो - तुम उससे भिन्न वस्तु हो। तुम सच्चिदानन्द परमात्मा के अंश हो, परन्तु अविवेक के कारण, अज्ञान के कारण शरीर, मन, बुद्धि, आदि के साथ तुमने अपनी इतनी घनिष्टता बना ली है कि उसे ही तुम अपना स्वरूप समझने लगे हो।
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हस्त - पाद आदि कर्म - इन्द्रियाँ नष्ट हो जाँय तो भी तुम रहते हो, आँख - कान आदि ज्ञानेन्द्रियाँ नष्ट हो जाँय तो भी तुम बहरे - आंधे होकर रहते हो - तुम्हारा अस्तित्व ज्ञानेन्द्रियों के नष्ट होने से नष्ट नहीं होता। जब कभी तुम बहुत भयंकर रोग से पीड़ित होते हो तो यही कह उठते हो कि अपने स्वरूप का अनुभव करने के लिये वेद - शास्त्र पर विश्वास करके सद्गुरुओं के बताये अनुसार उपासना विधान का सहारा लेकर उपासना करते चलो।

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