बुधवार, 4 मार्च 2015

= २१ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
सहज विचार सुख में रहै, दादू बड़ा विवेक ।
मन इन्द्रिय पसरै नहीं, अंतर राखै एक ॥
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॥ श्रीसर्वज्ञात्मनेन्द्र गुरुभ्यो नमः ॥
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"आपके विवेक" :
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नारायण ! विवेक सब साधनों का बीज है । जीवन धर्म रथ में विवेक को रथ का घोडा कहा गया है !
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बल विवेक दम परहित घोरे ।
छमा कृपा समता रजु जोरे ॥
{श्री रामचरित मानस – उत्तरकाण्ड}
जिस प्रकार प्रशिक्षित घोड़ा ही युद्ध में सवार की रक्षा करता है, यदि धोड़े का भली - भाँति प्रशिक्षण न हो तो युद्ध में विजय नहीं, पराजय निश्चित है । इसी प्रकार बिना विवेक के एक अध्यात्म साधक के लिये साधना कठिन है।
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अज्ञान रूपी वैरी ने अनादि काल से हमें नित्य बद्ध बना रखा है, इसको मारना है । जिनको हम अपना समझते हैं उनको इसने अपना बना रखा है । मन इन्द्रियां इत्यादि हमारे शत्रु हैं । वैराग्य रूपी तलवार तथा धैर्य पूर्वक तितिक्षा रूपी कवच को लेकर अज्ञान रूपी शत्रु से लड़ने पर हार की संभावना नहीं। विवेक सभी करते हैं किन्तु इसमें विचार की आवश्यकता है । विवेक शब्द का अर्थ होता – अलग करना, बिनना । "अलग करना" से विवेक की सिद्धि होती है ।
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जैसे एक सज्जन को प्रथम १५० रुपये मासिक की नौकरी प्राप्त हुई, उसमें उन्हें प्रातः तथा सायंकाल भजन - पूजन एवं सत्संग करने के लिये पर्याप्त समय मिल जाता था, किन्तु कुछ दिनों के पश्चात् उन्होंने पहली नौकरी छोड़कर दूसरी ३५० रुपये मासिक की नौकरी कर ली । इस नौकरी में उनके पास समय का अभाव हो गया, रात दिन नौकरी में व्यस्त रहने लगे, भजन - पूजन और सत्संग के लिये समय नहीं रहा । इस प्रकार का लौकिक विवेक असली विवेक से गिराने वाला होता है ।
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ठीक वस्तु को जानना आवश्यक है किन्तु अहंकार ठीक विवेक नहीं करने देता, अपितु उल्टे - पुल्टे रास्ते में लगा देता है । बुद्धि यदि बोलना भी चाहती है तो अहंकार उसे रोक देता है और आत्मज्ञान नहीं होने देता । प्रयत्न - पूर्वक बुद्धि से सीधा निर्णय नहीं होने देता । जब जीव जग जाता है तब पता चलता है कि मैं कभी जन्म लेने वाला नहीं, मैं निर्विकार स्वरूप हूँ । किन्तु जब तक जागता नहीं तब तक अविवेक करता रहता है । अविवेक बंधन में डालने वाला है । संसार में मृत्यु क्या है ? प्राण - वियोग । किन्तु ब्रह्मनिष्ठा में प्रमाद करना ही मृत्यु है ।
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इसलिये कहा है :
"प्रमादो वै मृत्युः" ।
"प्रमादो ब्रह्मनिष्ठायाम् न कर्त्तव्यो कदाचन् ।"
नारायण ! एक प्रमादी राजा था । एक दिन सायंकाल वह अपने मंत्रियों सहित राजमार्ग से जा रहा था, इतने में श्रृगालों के रोने की आवाज सुनाई दी । राजा ने मंत्रियों से पूछा "यह कौन रो रहा है ?" मंत्रियों ने उत्तर दिया "ये सियार लोग रो रहे है ।" उसने फिर पूछा "क्यो ?" मंत्रियों ने कहा "महाराज ! इनको रहने को मकान नहीं है, इस कारण रो रहे हैं।" राजा ने आज्ञा दी "राज्य कोष से इनके रहने की शीघ्र व्यवस्था करो ।"
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मंत्रियों ने कहा "जो आज्ञा" और राजा की मूर्खता को जानकर राज्य - कोष से पर्याप्त धनराशि निकाल कर खूब आनन्द उड़ाने लगे । कालान्तर में राजा पुनः मंत्रियों सहित सायंकाल उसी मार्ग से निकले और उन्होंने उसी प्रकार श्रृगालों को रोने की आवाज़ सुनी तो मंत्रियों से पूछा "ये प्रजाजन{सियार} क्यों रो रहे हैं ? क्या इनके रहने की व्यवस्था नहीं हुई ?" मंत्रियों ने उत्तर दिया "महाराज ! इनके रहने का प्रबन्ध कर दिया है, किन्तु इनको अन्न क्षेत्र की कमी है, अतः इसकी और व्यवस्था की जाये ।"
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इस प्रकार राजा से पुनः स्वीकृति लेकर प्रचुर मात्रा में मंत्रीगण राज्यकोष से धन निकालने में सफल हो गये और खूब मौज उड़ाने लगे । कुछ समय पश्चात् राजा फिर मंत्रियों के साथ सायंकाल राजमार्ग से निकले तो पूर्व की भाँति श्रृगालों के रोने को सुनकर पूछने लगे "अब ये प्रजाजन{सियार} क्यों रो रहे हैं ? क्या इनके अन्न की व्यवस्था अभी तक नहीं हुई ?" मंत्रियों ने उत्तर दिया "महाराज ! अब इन्हें कपड़ों की आवश्यकता है । आजकल ठंड पड़ रही है और इनके पास वस्त्र पहनने को नहीं है अतः रो रहे हैं ।" राजा ने कहा "शीघ्र ही इनके लिये कपड़ों की व्यवस्था करो ।" मंत्रियों ने उत्तर दिया "महाराज ! राज्य कोष तो खाली हो गया, अब तो आपको ही रुपये का प्रबन्ध करना पड़ेगा ।"
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राजा यह सुनकर बड़ा चिन्तित हुआ और उदास रहने लगा । एक दिन उसकी रानी ने उससे चिन्तित रहने का कारण पूछा । राजा ने कहा "राज्य कोष में धन की कमी है और प्रजा कष्ट उठा रहे हैं, यदि तुम अपने पिता के यहाँ से कुछ धनराशि मँगा सको तो मेरी चिन्ता दूर हो सकती है । "रानी ने विशेष दूत द्वारा अपने पिता को संदेश भेजकर रुपया मँगाया । उसका पिता भी बड़ा ऐश्वर्यवान् एवं योग्य राजा था ।
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उसने सोचा - मेरे जमाता के राज्य - कोष में पर्याप्त धनराशि थी जो इतनी शीघ्र समाप्त होने वाली नहीं थी, अवश्य ही वहाँ के प्रबन्ध में किसी प्रकार का घोटाला है । अतः उसने धन तो प्रचुर मात्रा में भेज दिया किन्तु साथ - साथ अपने एक योग्य अर्थमंत्री को भी भेज दिया । जब दूसरे राज्य के मंत्री ने आकर वस्तुस्थिति का पता लगाया तब ज्ञात हुआ कि राज्य - कोष से "सियार खाते के नाम" बड़ी - बड़ी रकमें निकाली गई हैं, इसलिये उसने शीघ्र ही जान लिया कि बस यही गोलमाल है ।
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किन्तु राजा से वह प्रत्यक्ष इस घोटाले को न कह कर पूछने लगा "महाराज ! आपके राज्य - कोष से "सियार खाते" में बड़ी रकमें निकाली गई हैं । यह खर्च खाता मेरी समझ में नहीं आया ।" राजा ने कहा "अरे ! इसी रुपये से तो सियार लोगों के रहन - सहन की व्यवस्था की गई है ।" मंत्री बुद्धिमान था, शीघ्र ही समझ गया और राजा से सियारों के रहने और खाने की व्यवस्था का स्वयं निरीक्षण करने का अनुरोध करने लगा । राजा ने अपने मंत्रियों को बुलाकर कहा कि "मैं अब तक की समस्त योजनाओं को स्वयं देखना चाहता हूँ ।" मंत्रीगण यह सुनकर बहुत चकराये और उनके झूठ का भण्डा - फोड़ हो गया ।
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इसी प्रकार विवेक की जागृति होने से अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है । आत्मा रूपी राजा ने इन्द्रियों और मन के अंतर्गत आनन्दरूप कोष को छोड़ दिया है । वे इसे विषयरूप सियारों की ओर प्रेरित करते हैं । इस प्रकार आत्मा का आनन्द रूपी खजाना लुट गया । यदि सत्संग और गुरुरूप नया मंत्री शास्त्र के द्वारा स्व - स्वरूप का परिज्ञान कराता है तो विवेक जाग्रत् हो जाता है । फिर बंधन नहीं रहता और आत्मा इन्द्रियों को अपने - अपने कर्म में लगा देता है ।

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