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*दादू तो तूं पावै पीव को, मैं मेरा सब खोइ ।*
*मैं मेरा सहजैं गया, तब निर्मल दर्शन होइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ जीवत मृतक का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(८)
*ब्राह्म समाज और कामिनी-कांचन*
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प्रताप – महाराज, जो लोग आपके पास आते हैं, क्या क्रमशः उनकी उन्नति हो रही है ?
श्रीरामकृष्ण - मैं कहता हूँ, संसार करने में दोष क्या है ? परन्तु संसार में दासी की तरह रहो ।
“दासी अपने मालिक के मकान को कहती है, 'हमारा मकान', परन्तु उसका अपना मकान कहीं किसी गाँव में होता है । मुख से तो वह मालिक के मकान को कहती है 'हमारा घर', परन्तु मन ही मन जानती है कि वह उसका घर नहीं, उसका घर एक दूसरे गाँव में है । और मालिक के लड़के को सेती है और कहती है, मेरा हरि बड़ा बदमाश हो गया, मेरे हरि को मिठाई पसन्द नहीं आती ! 'मेरा हरि' वह मुख ही से कहती है, मन ही मन जानती है, हरि मेरा लड़का नहीं, मालिक का लड़का है ।
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"इसीलिए तो, जो लोग आते हैं, उनसे कहता हूँ संसार में रहो, इसमें दोष नहीं; परन्तु मन ईश्वर पर रखो । समझना कि घर-द्वार, संसार-परिवार तुम्हारे नहीं हैं, ये सब ईश्वर के हैं । समझना कि तुम्हारा घर ईश्वर के यहाँ है । मैं उनसे यह भी कहता हूँ कि व्याकुल होकर उनकी भक्ति के लिए उनके पाद-पद्मों में प्रार्थना करो ।"
विलायत की बात फिर होने लगी । एक भक्त ने कहा, महाराज, आजकल विलायत के विद्वान लोग, सुना है, ईश्वर का अस्तित्व नहीं मानते ।
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प्रताप - मुँह से चाहे वे कुछ भी कहें, पर यह मुझे विश्वास नहीं होता कि उनमें कोई सच्चा नास्तिक है । इस संसार की घटनाओं के पीछे एक कोई महान् शक्ति है, यह बात बहुतों को माननी पड़ी है ।
श्रीरामकृष्ण - तो बस हो गया । शक्ति तो मानते हैं न ? तो नास्तिक फिर क्यों है ?
प्रताप - इसके अतिरिक्त यूरोप के पण्डित, Moral Government(सत्कर्मों का पुरस्कार और पाप का दण्ड इस संसार में होता है) - यह बात भी मानते हैं ।
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बड़ी देर तक बातचीत होने के बाद प्रताप चलने के लिए उठे ।
श्रीरामकृष्ण - (प्रताप से) - तुम्हें और क्या कहूँ ? केवल इतना कहता हूँ कि अब वाद-विवाद के बीच में न रहो ।
"एक बात और । कामिनी-कांचन ही मनुष्य को ईश्वर से विमुख करते हैं, उस ओर नहीं जाने देते । देखो न, अपनी स्त्री की सब लोग बड़ाई करते हैं । (सब हँसते है ।) चाहे वह अच्छी हो या खराब । अगर पूछो, क्यों जी, तुम्हारी स्त्री कैसी है, तो उसी समय जवाब मिलता है, जी बहुत अच्छी है ।"
प्रताप - तो मैं अब चलता हूँ ।
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प्रताप चले गये । श्रीरामकृष्ण की अमृतमयी, कामिनी और कांचन के त्याग की बात समाप्त नहीं हुई । सुरेन्द्र के बगीचे के पेड़ और उनकी पत्तियाँ दक्षिणी हवा के झोंकों में झूम रही थीं तथा मृदुल मर्मर शब्द सुना रही थीं । बातें उसी मर्मर शब्द के साथ मिल गयीं, भक्तों के हृदय में एक बार धक्का लगाकर अनन्त आकाश में विलीन हो गयीं ।
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कुछ देर बाद श्रीयुत मणिलाल मल्लिक ने श्रीरामकृष्ण से कहा, 'महाराज, अब दक्षिणेश्वर चलिये । आज वहाँ केशव सेन की माँ और उनके घर की स्त्रियाँ आपके दर्शनों के लिए आयेंगी । आपको वहाँ न पाकर सम्भव है, वे दुःखित हो वहाँ से लौट जायँ ।'
केशव को शरीर छोड़े कई महीने हो गये हैं । उनकी वृद्धा माता और घर की स्त्रियाँ, श्रीरामकृष्ण को बहुत दिनों से न देखने के कारण, आज दक्षिणेश्वर में उनके दर्शन करने जायेंगी ।
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श्रीरामकृष्ण - (मणि मल्लिक से) - ठहरो बाबू, एक तो मेरी आँख नहीं लगी, जल्दबाजी इतनी न कर सकूँगा । वे गयी हैं, तो क्या किया जाय ? वहाँ वे लोग बगीचे में टहलेंगी, आनन्द मनायेंगी ।
कुछ देर विश्राम करके श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर चले । जाते समय सुरेन्द्र की कल्याण-कामना करते हैं । सब कमरों में एक-एक बार जाते हैं और मृदु स्वर से नामोच्चार कर रहे हैं । कुछ अधूरा न रखेंगे, इसीलिए खड़े हुए कह रहे हैं - 'मैंने उस समय पूड़ी नहीं खायी, थोड़ी सी ले आओ ।'
बिलकुल जरा ही लेकर खा रहे हैं और कह रहे हैं - 'इसके बहुत से अर्थ हैं । पूड़ी नहीं खायी, यह याद आयेगा तो फिर आने की इच्छा होगी ।' (सब हँसते हैं ।)
मणि मल्लिक – (सहास्य) - अच्छा तो था, हम लोग भी आते । (भक्तमण्डली हँस रही है ।)
(क्रमशः)
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