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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार : ब्रह्मलीन महामण्डलेश्वर स्वामीआत्माराम जी महाराज,व्याकरण वेदांताचार्य श्रीदादू द्वारा बगड़,झुंझुनूं ।
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*(#श्रीदादूवाणी शब्दस्कन्ध ~ पद #. ७)*
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*७. सुन्दरी श्रृंगार*
*सो-धन पीवजी साज सँवारी,*
*अब वेगि मिलो तन जाइ बनवारी ॥टेक॥*
*साज शृंगार किया मन मांही,*
*अजहूँ पीव पतीजै नांही ॥१॥*
*पीव मिलन को अहिनिशि जागी,*
*अजहूँ मेरी पलक न लागी ॥२॥*
*जतन-जतन कर पंथ निहारूँ,*
*पीव भावै त्यों आप सँवारूं ॥३॥*
*अब सुख दीजे जाऊँ बलिहारी,*
*कहै दादू सुन विपति हमारी ॥४॥*
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भा०दी०- यद्यपि पूर्व कामादिविकारैर्दूषितं मे मनोऽवर्तत, तथापि इदानीं विवेक-वैराग्यादिसाधनैः साधितम् । अत: शीघ्रमागत्य हे मुरारे ! मदीये मनसि विराजस्व । अन्यथा तव विरहे शरीरमपि मे नक्ष्यति। अहो ज्ञानभक्तिवैराग्यादिसाधनैर्मदीयं मन: पवित्रीकृतमस्ति, तदपि मयि प्रभुन विश्वसिति । प्रभुप्राप्यत्यर्थमंहर्निशं भजनादिद्वारा अविद्यानिद्रात: उद्बोधं प्राप्तोऽस्मि । साम्प्रतं सततं भगवत्स्मरणेन न मे मनोविषयेषु संसज्यते । नानासाधनैः प्रभुदर्शनार्थं प्रभुप्राप्तिमार्ग प्रतीक्षेऽहम् ।
यथा प्रभुः प्रसीदेत् तथैवाचरामि । हे प्रभो! मदीयां प्रार्थनां श्रुत्वा वियोगजन्यां व्यथां निवार्य दर्शनदानेन पूर्णानन्दं विधायानुगृहाण । निरभिमानित्वमहंकारशून्यत्वपूर्वकमात्मसमर्पणं दैन्यशब्दस्य तात्पर्यमितिबोध्यम् । सम्प्रति तव चरणारविन्दयो: दीन: सन् नतमस्तकोऽहम्। अत्र नतमस्तकत्वेन श्रीदादुना स्वकीया दीनता प्रदर्शिता ।
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यद्यपि मेरा मन कामादि विकारों से दूषित था, परन्तु मैंने विवेक-वैराग्यादि साधनों द्वारा उसको सर्वथा पवित्र बना लिया है, अतः हे प्रभो ! शीघ्र आकर आप मेरे मन में विराजिये, अन्यथा आपके विरह में मेरा शरीर ही नष्ट हो जायेगा । अहो ! मैंने विवेक-वैराग्यादि साधनों से अपने मन को पवित्र भी बना लिया फिर भी प्रभु विश्वास नहीं करते । अहो, मैं भगवान् के मन में कैसे विश्वास पैदा करूं की मेरा मन पवित्र है ।
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मैं प्रभु-प्राप्ति के लिए दिनरात भजन करता हुआ अविद्या निद्रा से जाग भी गया हूँ, और निरन्तर भगवान् का ध्यान करने के कारण अब मेरा मन विषयों की तरफ भी नहीं दौड़ता । नाना साधन कर-करके प्रभु-प्राप्ति के मार्ग को देख रहा हूँ कि किधर से प्रभु आयेंगे । प्रभु प्रसन्न हों, वैसा ही मेरा आचरण है । हे प्रभो ! अब तो आप मेरी प्रार्थना को सुनकर वियोगजन्य व्यथा को दूर करके, दर्शन देकर आनन्दित करो ।
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हे प्रभो ! मैं दीन होकर आपके चरण-कमलों को बार-बार नमस्कार करता हूँ । श्री दादूजी ने इस पद्य में दीन होकर, नमस्कार के द्वारा अपनी दीनता प्रदर्शित की है, क्योंकि भगवान् को दीनता ही प्रिय है ।
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नारदसूत्र में ईश्वर को अभिमान से, द्वेष, और दैन्य ही प्रिय लगता है, ऐसा लिखा है । इस दीनता का अर्थ अभिमान रहित होना तथा किसी भी प्रकार के कर्तृत्व का अहंकार न करना ही है । अतः भक्त आपको भगवान् का किंकर समझता है ।
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किसी ने लिखा है कि – हे प्रभो ! मुझे समस्त साधनों से हीन, माया के सर्वथा पराधीन हुए, और पापों के भार से दबे हुए इस दीन की केवल आप ही गति हैं । यहाँ पर दीनता शब्द से अहंकार रहित आत्मसमर्पण ही दीन शब्द का तात्पर्य जानना चाहिये ।
(क्रमशः)
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