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*मन चित मनसा पलक में, सांई दूर न होइ ।*
*निष्कामी निरखै सदा, दादू जीवन सोइ ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ निष्काम पतिव्रता का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद ८३ ~ निष्काम भक्ति*
*दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के संग में*
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श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर मन्दिर में भक्तों के साथ अपने कमरे में बैठे हुए हैं । शाम हो गयी है, श्रीरामकृष्ण जगन्माता का स्मरण कर रहे हैं । कमरे में राखाल, अधर, मास्टर तथा और भी दो-एक भक्त हैं ।
आज शुक्रवार है, जेष्ठ की कृष्णा द्वादशी, २० जून १८८४ । पाँच दिन बाद रथयात्रा होगी । कुछ देर बाद ठाकुरबाड़ी में आरती होने लगी । अधर आरती देखने चले गये । श्रीरामकृष्ण मणि के साथ बातचीत कर रहे हैं ।
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श्रीरामकृष्ण - अच्छा, बाबूराम की क्या पढ़ने की इच्छा है ?
"बाबूराम से मैंने कहा, तू लोक-शिक्षण के लिए पढ़ । सीता का उद्धार हो जाने पर विभीषण को राज्य करना पसन्द न आया । राम ने कहा, मूर्खों को शिक्षा देने के लिए तुम राज्य करो । नहीं तो वे कहेंगे, विभीषण ने राम की सेवा की, परन्तु क्या पाया ? - राज्य देखकर उन्हें भी सन्तोष होगा ।
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"तुमसे कहता हूँ, उस दिन मैंने देखा, बाबूराम, भवनाथ और हरीश, ये प्रकृति भाववाले हैं ।
"बाबूराम को देखा कि वह देवीमूर्ति है । गले में माला, सखियाँ साथ हैं । उसने स्वप्न में कुछ पाया है, वह शुद्धसत्त्व है, थोड़े से यत्न से ही उसकी आध्यात्मिक जागृति हो जायेगी ।
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"बात यह है कि देह-रक्षा के लिए बड़ी असुविधा हो रही है । वह अगर आकर रहे तो अच्छा है । इन लड़कों का स्वभाव एक खास तरह का हो रहा है । नोटो(लाटू) ईश्वरी भाव में ही रहता है - वह तो शीघ्र ही ईश्वर में लीन हो जायेगा ।
"राखाल का स्वभाव ऐसा हो रहा है कि मुझे ही उसे पानी देना पड़ता है । (मेरी) सेवा वह विशेष नहीं कर सकता ।
"बाबूराम और निरंजन, इन्हें छोड़कर और लड़के कौन हैं ? अगर कोई आता है, तो मालूम होता है कि उपदेश लेकर चला जायेगा ।
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“परन्तु मैं, खींच-खाँचकर बाबूराम को भी नहीं लाना चाहता । घर में गुल-गपाड़ा मच सकता है । (सहास्य) मैं जब कहता हूँ, चला क्यों नहीं आता, तब बार बार कहता है, आप कुछ ऐसा ही कर दीजिये जिससे मैं आ सकूँ । राखाल को देखकर रोता है, कहता है, वह मजे में है ।
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"राखाल अब घर के बच्चे की तरह रहता है । जानता हूँ, अब वह आसक्ति में पड़ नहीं सकता । कहता है, 'वह सब फीका लगता है ।’ उसकी स्त्री यहाँ आयी थी । उम्र १४ साल की है । यहाँ होकर कोन्नगर गयी थी । उन लोगों ने उससे(राखाल से) कोन्नगर जाने को कहा, पर वह न गया । कहता है - आमोद-प्रमोद अब अच्छा नहीं लगता । अच्छा, निरंजन को तुम क्या समझते हो ?”
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मास्टर - जी, बड़े अच्छे चेहरे-मोहरे का है ।
श्रीरामकृष्ण - नहीं, सिर्फ चेहरा-मोहरा नहीं । सरल है । सरल होने पर सहज ही ईश्वर को लोग पा जाते हैं । सरल होने पर उपदेश भी शीघ्र सफल हो जाता है । जोती हुई जमीन, कंकड़ का नाम नहीं, बीज पड़ते ही पेड़ उग जाता है । फल भी शीघ्र आ जाते हैं ।
“निरंजन विवाह न करेगा । तुम क्या कहते हो? कामिनी और कांचन, ये ही बाँधते हैं न ?"
मास्टर - जी हाँ ।
(क्रमशः)
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